________________
यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
८. कौलिक (१२६) : जुलाहा या बुनकर
कौलिक के एक औजार नलक का भी उल्लेख है। यह धागों को सुलझाने का औजार था जो एक ओर पतला तथा दूसरी ओर मोटा जंघाओं के प्राकार का होता था ।२६
६. ध्वजिन् या ध्वज (४३०) : श्रुतदेव ने इसका अर्थ तेली किया है ।२७
मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में सोम या सुरा बेचने वाले के अर्थ में ध्वज या ध्वजिन् शब्द का प्रयोग हुआ है । २८
१०. निपाजीव (३९०) : कुम्भकार ।
निपाजीव निश्चल आसन पर बैठकर चक्र घुमाता तथा उस पर घड़े बनाता है। यशस्तिलक में एक मन्त्री राजा से कहता है कि हे राजन्, जिस प्रकार निपाजीव घड़ा बनाने के लिए निश्चल आसन पर बैठकर चक्र घुमाता है उसी तरह आप भी अपने आसन (सिंहासन या शासन) को स्थिर करके दिक्पालपुर रूपी घड़े बनाने के लिए अर्थात् चारों दिशाओं में राज्य करने के लिए चक्र घुमाओ (सेना भेजो)।२९
११. रजक (२५४) : धोबी अर्थात् कपड़े धोनेवाला।
रजक की स्त्री रजकी कहलाती थी। सोमदेव ने जरा (बुढापे) को रजकी की उपमा दी है, जिस तरह रजकी गन्दे कपड़ों को साफ कर देती है, उसी तरह जरा भी काले केशों को सफेद कर देती है।३०
१२. दिवाकीर्ति (४०३, ४३१) : नाई या चाण्डाल ।
सोमदेव ने लिखा है कि दिवाकीर्ति को सेनापति बना देने के कारण कलिङ्ग में अनंग नामक राजा मारा गया था ।३१ मनुस्मृति में चाण्डाल अथवा नीच जाति के लिए दिवाकीर्ति शब्द आया है।३२ नैषधकार ने नाई के अर्थ में इसका प्रयोग किया है ।३३ यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने भी दिवाकोर्ति
३६. कोलिकनलकाकारे ते जंधे सांप्रतं जाते । -पृ. १२६ २७. ध्वजकुलजातः तिलंतुदकुलोत्पन्नः।-पृ० ४३० २८. सुरापाने सुराध्वजः, मनुस्मृतिः ८५, याज्ञवल्क्य स्मृतिः ॥१४१ २६. निपाजीव इव स्वामिनिस्थरीकृतनिजासनः ।
चक्रं भ्रमय दिक्पालपुरभाजनसिद्धये।-पृ० ३६० ३०. कृष्णच्छवि; साद्य शिरोरुहश्रीजरारजक्या क्रियतेऽवदाता -पृ० २५४ ३६. कलिंगेष्वनंगो नाम दिवाकीत: सेनाधिपत्येन ..वधमवाप ।-पृ० ४३६ ३२. मन स्मृतिः शE ३३. दिनमिव दिवाकीतिस्तीक्षेः तुरैः सवितुः करैः।-नैषध, १९५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org