SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन ढंक लेते थे ।' ३ मन्दिर में पूजा के लिए नियुक्त ब्राह्मण देवभोगी कहलाता था। राज्य के मांगलिक कार्यों के लिए नियुक्त प्रधान ब्राह्मण पुरोहित कहलाता था ।' '५ यह प्रातःकाल ही राज-भवन में पहुँच जाता था। ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण और द्विज बहु प्रचलित शब्द थे। विप्र, श्रोत्रिय, वाडव, देवभोगी तथा त्रिवेदी का यशस्तिलक में केवल एक-एक बार उल्लेख हुआ है। मौहूर्तिक तथा भूदेव का दो-दो बार तथा पुरोहित का चार बार उल्लेख हुआ है। क्षत्रिय-क्षत्रिय वर्ण के लिए क्षत्र और क्षत्रिय दो शब्दों का व्यवहार हुआ है । प्राणियों की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म माना जाता था१६ । पौरुष सापेक्ष कार्य तथा राज्य संचालन क्षत्रियोचित कार्य माने जाते थे। सम्राट् यशोधर को अहिच्छेत्र के क्षत्रियों का शिरोमरिण कहा गया है । १७ वैश्य-व्यापारी वर्ग के लिए यशस्तिलक में वैश्य, वणिक, श्रेष्ठी और सार्थवाह शब्द आए हैं। व्यापारी वर्ग राज्य में व्यापार करने के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए विदेशों से भी सम्बन्ध रखते थे। सुवर्णद्वीप जाकर अपार धन कमाने वाले व्यापारियों का उल्लेख पाया है ।। ८ कुशल व्यापारी को राज्य की ओर से राज्यश्रेष्ठी पद दिया जाता था। १९ उसे विशांपति भी कहते थे । २० शूद्र-शूद्र अथवा छोटी जातियों के लिए यशस्तिलक में शूद्र, अन्त्यज तथा पामर शब्द आए हैं। अन्त्यजों का स्पर्श वर्जनीय माना जाता था। पामरों की सन्तान उच्च कार्य के योग्य नहीं मानी जाती थी ।२१ १३ उत्तीयदुकलांचलपिहितबिम्बिना...मौहूर्तिकसमाजेन ।--पृ० ३१६ पृ० १४. समाज्ञापय देवभोगिनम् । --पृ०१४. उत्त० १५. द्वारे तवोत्सवमतिश्च पुरोहितोऽपि ।-पृ० ३६१ पू० १६ भूतसंरक्षणं हि क्षत्रियाणां महान्धर्मः ।--पृ० ९५ उत्त. १७. अहिच्छत्रक्षत्रिय शिरोमणिः |--पृ. १६७ पृ. १८ सुवर्णद्वीपमनुससार । पुनरगण्यपण्यविनिमयेन तत्रत्यमचिन्त्यमात्माभिमत वस्तुस्कन्धमादाय :- पृ. ३४५ उत्त. १९. अजमार:......राजश्रेष्ठिन् --पृ. २६, उत्त. २०. सः विशांपतिरेवमूचे ।--पृ. २६, उत्त. " अन्त्यजैः स्पृष्टाः।-पृ० ४५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy