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परिच्छेद तीन
यशोधरचरित्र की लोकप्रियता
यशोधरचरित्र मध्ययुग के साहित्यकारों का प्रिय और प्रेरक विषय रहा है। यद्यपि कथावस्तु के मूल उत्स के विषय में अभी निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, फिर भी अब तक उपलब्ध प्रकाशित तथा अप्रकाशित सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि लगभग सातवीं शती के अन्त से लेकर उन्नीसवीं शती तक यशोधरचरित्र पर ग्रन्थ रचना होती रही। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, गुजराती, तमिल, कन्नड़ आदि भारतीय भाषाओं में इस कथा को आधार बनाकर लिखे गये अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। अपभ्रंश जसहरचरिउ की भूमिका में प्रो० पी० एल० वैद्य ने उनतीस ग्रन्थों की सूचना दी है। इधर उपलब्ध जानकारी से यह संख्या चौवन तक पहुँच जाती है। अनेक शास्त्रभण्डारों की सूचियाँ अभी तक नहीं बन पायीं, इसलिए अभी भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इस सूची के अतिरिक्त और नवोन ग्रन्थ यशोधरचरित्र पर न मिले। अब तक प्राप्त जानकारी का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला कहा (७७९ ई० ) में प्रभंजन द्वारा रचित यशोधरचरित्र की सूचना दी है।' यद्यपि यह ग्रन्थ अब तक प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु यह सत्य है कि प्रभंजन ने यशोधरचरित्र की रचना की थी। वासवसेन ने भी प्रभंजन का उल्लेख किया है।
२. हरिभद्र सूरि के प्राकृत ग्रन्थ समराइच्च कहा में यशोधर की कथा आयी है। हरिभद्र उद्योतन सूरि के गुरुत्रों में से थे। इनका समय आठवीं शती का. मध्यकाल माना जाता है ।
१. सत्तण जो जसहरो जपहर चरिएण जणवए पयडो। कलि-मल-पभं न णो च्चिय पभंजणो प्रासि रायरिसी।
-कुवलयमाला, पृ. ३१३१ २. सर्वशास्त्रविदां मान्यैः सर्वशास्त्रार्थपारगैः । प्रभंजनादिभिः पूर्व हरिषेणसमन्वितैः ।।
-पी० एल. वैद्य -जसहर चरिउ, भूमिका, १० २५
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