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यशस्तिलक की कथावस्तु और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि . .. ४९ चरित्र विकास की नैतिक जिम्मेदारी पूर्ण की, दूसरी ओर अहिंसा की प्रतिष्ठा से धार्मिक नेता का दायित्व ।
एक बात और जो ध्यान में आती है वह यह कि संभवतया १० वीं शताब्दी में बलि प्रथा का बहुत ही जोर था। छोटे से छोटे पशु-पक्षी से लेकर बड़े से बड़े पशु की बलि देने में भी लोगों को हिचकिचाहट नहीं होती थी। दक्षिण भारत में जहाँ कौल और कापालिक सम्प्रदाय विशेष पनपे, वहाँ बलि प्रथा का जोर होना स्वाभाविक था। सोमदेव ने यशस्तिलक में जिस तीव्रता के साथ और जिन कठोर शब्दों में बलि प्रथा का विरोध किया है, वह कथावस्तु की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का दूसरा अङ्ग है। बलि प्रथा का विरोध करना अहिंसा के विकास के लिए नितांत आवश्यक था। उसी के लिए सोमदेव ने कथा के माध्यम से जन सामान्य के सामने बलि के दुष्परिणामों को प्रस्तुत किया और लोगों को यह महसूस करने के लिए बाध्य किया कि बलि करना निंद्य और निकृष्ट काम ही नहीं घृणास्पद, अतएव परित्याज्य भी है।
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