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________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक श्रध्ययन सोमदेव का ध्यान उपर्युक्त तथ्य की ओर अवश्य गया होगा, क्योंकि अहिंसा संस्कृति के क्रमिक विकास को दृष्टि में रखते हुए उक्त कथावस्तु की योजना की गयी है | अहिंसा के उत्कृष्ट स्वरूप की साधना साधु ही कर सकता है जो त्रस और स्थावर समस्त जीवों की हिंसा से विरत है । गृहस्थ इतनी साधना नहीं कर सकता । उसे अपने प्राश्रित प्राणियों के भररण-पोषण के लिए नाना प्रकार का प्रारम्भ करना पड़ता है, तरह-तरह के उद्योग करने होते हैं तथा अपने विरोधियों का प्रतिरोध और विनाश करना होता है । वह यदि कुछ साधना कर सकता है तो केवल यह कि जानबूझकर ( संकल्पपूर्वक ) किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । इन चार प्रकार की हिंसानों को शास्त्रीय शब्दों में निम्नलिखित नाम दिये गये हैं १. आरम्भी हिंसा, २. उद्योगी हिंसा, ३. विरोधी हिंसा, ४. संकल्पी हिंसा | ४८ गृहस्थ इन चार प्रकार की हिंसाओं में से अंतिम अर्थात् संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है । यशस्तिलक के कथानायक ने संकल्पपूर्वक आटे के मुर्गे की बलि की थी, जिसका कि उसे त्यागी होना चाहिए था । यही कारण है कि उसे इसका विषाक्त फल भोगना पड़ा । कथा की इस योजना के पीछे एक और भी महत्त्वपूर्ण तथ्य छिपा हुआ है । यशोधर को उक्त हिंसा के प्रतिफल छः जन्मों तक पशुयोनि में ही क्यों भटकना पड़ा, नरक में भी तो जा सकता था ? यशोधर ने आटे का मुर्गा चढ़ाकर उससे समस्त जीवों की बलि करने का फल प्राप्त होने की कामना की । ९ निःसन्देह यह देवता के साथ बहुत बड़ा छल था । छल-कपट ( माया ) तियं वगति के कर्म बन्धन का कारण है ( माया तैर्यग्योनस्य तत्त्वार्थ सूत्र ६ । १६ ) । यही कारण है कि यशोधर को ऐसे तिर्यंचगति कर्म का बन्ध हुआ, जिसे वह छः जन्मों में भोग पाया । इस प्रकार यशस्तिलक की कथावस्तु प्रहिंसा संस्कृति की विशाल पृष्ठभूमि पर प्रतिष्ठित हुई है । इससे एक ओर सोमदेव के साहित्यकार ने जनमानस के ५. सर्वेषु सत्त्वेषु हतेषु यन्मे भवॆत्फलं देवि तदत्र भूयात् । इत्याशयेन स्वयमेव देव्याः पुरः शिरस्तस्य चकर्त शस्त्रया ॥ - यश० पृ० १६२ उत्त० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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