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________________ यशस्तिलक की कथावस्तु और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि काव्य और बुद्धचरित की पृष्ठभूमि बौद्ध चिन्तन और तत्त्वज्ञान को जनमानस तक पहुँचाने की मूल प्रेरणा से ही निर्मित हुई है । जैन साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग इसी धरातल पर आधारित है। सोमदेव सूरि का यशस्तिलक दशवीं शताब्दी (६५६ ई.) के मध्य में लिखा गया संस्कृत साहित्य का एक ऐसा ही ग्रन्थ है, जिसकी मूल प्रेरणा शुद्ध रूप से नैतिक धरातल पर प्रतिष्टित हुई है। कथाकार को जनमानस में अहिंसा के उत्कृष्टतम रूप की प्रतिाठा करना अभीष्ट था, जिसे उसने एक लोकप्रिय कथापुरुष के चरित्र के माध्यम से प्रस्तुत किया। यशस्तिलक का चरितनायक सम्राट यशोधर हिंसा का तीव्र विरोधी है, इसलिए जब उसकी मां उससे पशुबलि देने की बात कहती है तो वह बिगड़ खड़ा होता है और कठोर शब्दों में बलि का खण्डन करता है। बाद में मां के प्राग्रह और तीव्र प्रेरणा के कारण आटे के मुर्गे की बलि देना मंजूर कर लेता है। बलि देने के तात्कालिक दुष्परिणाम स्वरूप यशोधर की रानी उस आटे के मुर्गे में विष मिलाकर माँ-बेटे को बलि के प्रसाद के रूप में लिखा देती है, जिससे उन दोनों की तत्काल मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद दोनों छः जन्मों तक पशुयोनि में भटकते रहते हैं । अन्त में सद्गुरु का सान्निध्य पाकर जब उन्हें अपने इस पाप का बोध होता है और उसके लिए वे पश्चात्ताप करते हैं तब कहीं उन्हें फिर से मनुष्य भव की प्राप्ति होती है । ___ इस तरह यशस्तिलक की कथावस्तु हिंसा और अहिंसा के द्वन्द्व की कहानी है। प्राचार्य सोमदेव एक उच्चकोटि के जैन साधु थे। अतएव उनका अहिंसा के प्रति तीव्र अनुराग स्वाभाविक था। कथा के माध्यम से वे अहिंसा संस्कृति को सम्पूर्ण जनमानस में बिठा देना चाहते थे । यशस्तिलक की कथा के द्वारा उन्होंने लोगों को दिखाया कि जब आटे के मुर्गे की भी हिंसा करने से लगातार छः जन्मों तक पशुयोनि में भटकना पड़ा तो साक्षात् पशु-हिंसा करने का कितना विषाक्त परिणाम होगा, इसकी कल्पना करना भी कठिन है । कथावस्तु की यही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यशस्तिलक की कथा का नायक एक सम्राट है । साम्राज्य में कितने तरह की हिंसा नहीं होती ? पशुओं की बात तो दूर रही, युद्धों में नर संहार की भी सीमा नहीं रहती। ऐसी स्थिति में एक आटे के मुगें की बलि देने के कारण उसे छः जन्मों तक पशुयोनि में भटकना कहाँ तक तर्कसंगत है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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