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यशस्तिलक भौर सोमदेव सूरि
चलता फिर भी नीतिवाक्यामृत यशस्तिलक के पूर्व की रचना है, यह उपलब्ध साक्ष्यों के श्राधार पर निर्णीत किया जाता है । ३०
यशस्तिलक राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज तृतीय के चालुक्य वंशीय सामन्त aur के श्राश्रित गंगधारा में सन् ६५६ ई० में पूर्ण हुआ था जिसका उल्लेख सोमदेव ने स्वयं किया है । यशस्तिलक में सोमदेव के गुरु नेमिदेव को तिरानवे महावादियों को जीतने वाला कहा है जब कि नीतिवाक्यामृत में पचपन महावादियों को जीतने वाला । इससे नीतिवाक्यामृत यशस्तिलक के पूर्व की रचना ठहरता है । नीतिवाक्यामृत की रचना के समय नेमिदेव ने पचपन महावादियों को पराजित किया हो उसके बाद यशस्तिलक की रचना के समय तक अड़तीस वादियों को और भी जीत लिया हो । यदि नीतिवाक्यामृत बाद में रचा गया होता तो ये संख्यायें विपरीत होतीं अर्थात् यशस्तिलक की पचपन और नीतिवाक्यामृत की तिरानवे | ३
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दूसरे यदि नीतिवाक्यामृत यशस्तिलक के बाद का होता तो चूंकि वह शुद्ध राजनीतिक ग्रन्थ है, इसलिए किसी राष्ट्रकूट या चालुक्य राजा के लिए ही लिखा -जाता और उसका उल्लेख भी अवश्य होता, किन्तु ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । इससे प्रतीत होता है कि नीतिवाक्यामृत यशस्तिलक के पूर्व रचा गया । उपर्युक्त साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में नीतिवाक्यामृत के टीकाकार का यह कथन जाँचने-देखने पर ठीक प्रतीत होता है कि प्रतिपक्षी इन्द्र के लिए कालाग्नि के समान कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेव के श्राग्रह पर उनके अनुज सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत की रचना की ।
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लगता है महेन्द्रदेव द्वितीय के गद्दी पर बैठने के उपरान्त सोमदेव साधु हो गये हों। क्योंकि प्राचीन इतिहास में प्राय: ऐसा देखा गया है कि एक भाई के हाथ में शासन सूत्र आने पर दूसरा भाई यदि उसका विरोध नहीं करना चाहता तो संन्यस्त हो जाता था, या राज्य छोड़कर अन्यत्र चला जाता था । सोमदेव के साथ भी यही सम्भावना हो सकती है । या यह भी सम्भव है कि सोमदेव महेन्द्रदेव के सगे भाई न होकर दूर के रिश्ते के भाई रहे हों ।
३०. डाक्टर वी० राघवन् - नीतिवाक्यामृत आदि के रचयिता सोमदेव सूरि, जैन सिद्धान्त मास्कर, भाग १० किरण २
३१. त्रिनवतेर्जे तुर्महावादिनाम् । - यश० पृ० ४१८
पंचपंचाशन्महावादि विजयोपार्जित कीर्तिम दाकिनीपवित्रितत्रिभुवनस्य ।
-नीति० प्रशस्ति ।
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