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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
होनेवाले सोमदेव नाम का तो टीका में उल्लेख किया है,१८ किन्तु आश्चर्य है कि न तो श्लिष्टार्थ को ही लिखा और न महेन्द्रदेव के नाम का भी कोई संकेत किया, यही कारण है कि विद्वानों को इस पद्य में से महेन्द्र देव नाम निकालना मुश्किल लगता है। इसी तरह प्रथम पद्य के द्वितीय पर्थ का भी टीकाकार ने कोई निर्देश नहीं किया ।२०
महेन्द्रमातलिसंजल्प का संकेत
नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति के उल्लेखानुसार सोमदेव ने 'महेन्द्रमातलिसंजल्प' नामक ग्रन्थ की भी रचना की थी। यद्यपि यह ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ फिर भी इसके नाम से प्रतीत होता है कि यह एक राजनीति विषयक ग्रन्थ होगा, जिसमें महेन्द्रदेव और उनके सारथी के संवाद रूप में राजनीति सम्बन्धी विषयों का वर्णन होगा। 'मातलि' और 'महेन्द्र' दोनों ही शब्द रिलष्ट हैं । 'मातलि' शब्द का प्रयोग इन्द्र के सारथी तथा सारथी मात्र के लिए भी होता है । इसी तरह 'महेन्द्र' शब्द देवराज इन्द्र तथा कन्नौज नरेश महेन्द्रदेव दोनों का बोध कराता है । __उपर्युक्त विवरण से प्रतीत होता है कि सोमदेव का कन्नौज नरेश महेन्द्रदेव के साथ निकट का सम्बन्ध था। ये महेन्द्रदेव कौन थे, कब हुए तथा सोमदेव और इनके बीच किस-किस प्रकार के सम्बन्ध थे, इत्यादि बातों पर विचार करना आवश्यक है।
सोमदेव और महेन्द्रदेव के सम्बन्धों का ऐतिहासिक मल्यांकन
कन्नौज के इतिहास में महेन्द्रदेव या महेन्द्रपालदेव नाम के दो राजा हुए हैं ।२१ महेन्द्र पाल देव प्रथम और महेन्द्रपाल देव द्वितीय ।
१८. अस्य श्लोकस्य चतुर्षु चरणेषु पूर्वो वर्णो गृह्यते, तेन 'सोमदेव' इति नाम भवति ।
___ -यश० श्लो० २२० को सं० टी०, पृ. १९४ । १९. हन्दिकी-यशस्तिलक एएड इंडियन कल्चर, ४६४ २०. इन दोनों पद्यों के श्लिष्टार्थ का पता सर्वप्रथम स्व. प्रज्ञाचक्षु पं. गोविन्दराम
जी शास्त्री ने लगाया था जिसका उल्लेख स्व. प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इतिहास में किया है। शास्त्री जी ने बनारस आने पर मुझसे भी इसकी
चर्चा की थी। २१.दी एज ऑव इम्पीरियल कन्नौज, पृ. ३३, ३७
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