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________________ यशस्तिलक और सोमदेव सूरि पहला अर्थ-जिनका महान् उदय पृथ्वीमण्डल को प्रानन्दित करनेवाला है, ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान् संसार के मानस में निवास करनेवाली लक्ष्मी को पुष्ट करें। दसरा अर्थ-पृथ्वीमण्डल के प्रानन्द के लिए प्रसादित किया है कन्नौज (महोदय) को जिसने ऐसे महेन्द्रदेव संसार के मनुष्यों के मन में निवास करनेवाली लक्ष्मी को पुष्ट करें। उक्त पद्य में प्रयुक्त 'महोदय' शब्द को मेदनी कोषकार भी कन्नौज के अर्थ में बताता है ( महोदयः कान्यकुब्जे )। हेमनाममाला में भी कान्यकुब्ज को महोदय कहा गया है ( कान्यकुब्ज महोदयम् )। यशस्तिलक के एक दूसरे पद्य में भी सोमदेव ने अपना तथा महेन्द्रदेव का नाम एवं सम्बन्ध श्लिष्ट रूप में निर्दिष्ट किया है "सोऽयमाशातियशः महेन्द्रामरमान्यधीः। देयात्ते सततानन्दं वस्त्वभीष्टं जिनाधिपः॥” (१।२२०) इस पद्य के भी दो अर्थ हैं-पहला जिनेन्द्रदेव के अर्थ में और दूसरा सोमदेव के पक्ष में। पहला अर्थ-सभी दिशानों में जिनका यश फैला है तथा समस्त नरेन्द्रों और देवेन्द्रों के द्वारा जिनके ज्ञान की पूजा की जाती है, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् निरन्तर आनन्द स्वरूप (मोक्ष रूपी) प्रभीष्ट वस्तु प्रदान करें। दसरा अर्थ-समस्त दिशाओं में जिनकी कीर्ति फैल गयी है तथा महेन्द्रदेव के द्वारा जिनकी विद्वत्ता का सम्मान किया गया है, ऐसे सोमदेव निरन्तर प्रानन्द देनेवाली (काव्य रूप) अभीष्ट वस्तु प्रदान करें। तीसरा अर्थ महेन्द्रदेव के सम्बन्ध में भी हो सकता है। अर्थात् जिनका यश समस्त दिशाओं में फैल गया है तथा जिनकी बुद्धि का लोहा देवता लोग भी मानते हैं, ऐसे महेन्द्रदेव आप सबको निरन्तर प्रानन्द और अभीष्ट वस्तु प्रदान करें। __इस पद्य के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षर को मिलाने से 'सोमदेव' नाम निकलता है तथा द्वितीय चरण में महेन्द्र पद स्पष्ट है। यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने इस पद्य से संकेतित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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