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( १७ ) तृतीय अध्याय में ललित कलाओं तथा शिल्प-विज्ञान विषयक सामग्री का विवेचन है । इसमें सब चार परिच्छेद हैं।
परिच्छेद एक में संगीत, वाद्य-यन्त्र तथा नृत्यकला का विवेचन है । सोमदेव ने यशोधर को गीतगन्धर्वचक्रवर्ती कहा है। यशोधर का हस्तिपक, जिसकी और महारानी आकृष्ट हुई, संगीत में माहिर था। संगीत और स्वरलहरी का अनन्य सम्बन्ध है। सोमदेव ने सप्त स्वरों का उल्लेख किया है।
वाद्य-यन्त्रों में यशस्तिलक के उल्लेख विशेष महत्त्व के हैं । वाद्यों के लिए सम्मिलित शब्द प्रातोद्य था। संगीतशास्त्र की तरह सोमदेव ने भी वाद्यों के घन, सुषिर, तत और अवनद्ध, ये चार भेद बताये हैं। सोमदेव ने तेईस वाद्ययन्त्रों की जानकारी दी है। शंख, काहला, दुन्दुभि, पुष्कर, ढक्का, मानक, भम्भा, ताल, करटा, त्रिविला, डमरुक, रुजा, घण्टा, वेणु, वीणा, झल्लरी, वल्लकी, पणव, मृदंग, भेरी, तूर, पटह, और डिण्डिम, इन सभी के विषय में यशस्तिलक की सामग्री से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। संगीतशास्त्र के अन्य ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इन वाद्य-यन्त्रों का इस परिच्छेद में पूरा परिचय दिया गया है।
नृत्यकला विषयक सामग्री भी यशस्तिलक में पर्याप्त है । सोमदेव ने लिखा है कि सम्राट यशोधर नाट्यशाला में जाकर कुशल अभिनेताओं के साथ अभिनय देखते थे। नाट्य प्रारम्भ होने के पूर्व रंगपूजा की जाती थी। सोमदेव ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। ..
यशस्तिलक में नृत्य के लिए नृत्य, नृत्त, नाट्य, लास्य, ताण्डव, तथा विधि शन्द आये हैं। नृत्य, नृत्त और नाट्य देखने में समानार्थक शब्द लगते हैं, किन्तु वास्तव में इनमें पर्याप्त अन्तर था । दशरूपक में धनंजय ने इनके पारस्परिक भेदों को स्पष्ट किया है। नाट्य दृश्य होता है, इसलिए इसे 'रूप' भी कहते हैं और रूपक अलंकार की तरह प्रारोप होने के कारण रूपक भी। काव्यों में वर्णित धीरोदत आदि प्रकृति के नायकों, नायिकाओं तथा अन्य पात्रों का आंगिक, वाचिक, पाहार्य तथा सात्विक अभिनयों द्वारा अवस्थानुकरण नाट्य कहलाता है। यह रसाश्रित होता है । नृत्य भावाश्रित और केवल दृश्य होता है। ताल और लय के प्राश्रित किये जानेवाले नर्तन को नृत्त कहते हैं। इसमें अभिनय का सर्वथा प्रभाव रहता है। लास्य और ताण्डव नृत्त के ही भेद हैं। इस परिच्छेद में इस सम्पूर्ण सामग्री का विशद विवेचन किया गया है।
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