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________________ प्रकार भारतीय सार्थ टाड़ा बांधकर विदेशी व्यापार के लिए निकलते थे । सोमदेव ने ताम्रलिप्ति तथा सुवर्णद्वीप के व्यापार को जानेवाले सार्थों का उल्लेख किया है। सोमदेव के युग में वस्तु विनिमय तथा मुद्रा के माध्यम से विनिमय की प्रणाली थी। पिछड़े क्षेत्रों में वस्तु विनिमय चलता था। मुद्रामों में सोमदेव ने निष्क, कार्षापण तथा सुवर्ण का उल्लेख किया है। निष्क वैदिक युग में एक स्वर्णाभूषण था, किन्तु बाद में एक नियत स्वर्ण मुद्रा बन गया । मनुस्मृति में निष्क को चार स्वर्ण या तीन सौ बीस रत्ती के बराबर कहा गया है। कार्षापरण चांदी का सिक्का था । मनुस्मृति में इसे राजतपुराण और धरण कहा है । पुराण का वजन बत्तीस रत्ती होता था। कार्षापण की फुटकर खरीद भी होती थी। सुवर्ण निष्क की तरह एक सोने का सिक्का था । अनगढ़ सोने को हिरण्य कहते थे, और जब उसी के सिक्के ढाल लिए जाते तो वे सुवर्ण कहलाते थे । मनुस्मृति के अनुसार स्वर्ण का वजन अस्सी रत्ती या सोलह माषा होता था। सोमदेव ने न्यास या धरोहर रखने का भी उल्लेख किया है। प्राचार, व्यवहार तथा विश्वास के लिए विश्रुत व्यक्ति के यहां न्यास रखा जाता था। यदि न्यास रखने वाले की नियत खराब हो जाये और वह समझ ले कि न्यास रखनेवाले के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं, जिसके आधार पर वह कह सके कि उसने अमुक वस्तु उसके पास न्यास रखी है, तो वह न्यास को हड़प जाता था। . भृति या सेवावृत्ति के विषय में लोगों की भावना अच्छी नहीं थी। विवश होकर आजीविका के लिए सेवावृत्ति स्वीकार भले ही कर ली जाये, किन्तु उसे अच्छा नहीं माना जाता था। ग्यारहवें परिच्छेद में इस सम्पूर्ण सामग्री का विवेचन है । परिच्छेद बारह में यशस्तिलक में उल्लिखित शस्त्रास्त्रों का विवेचन है। सोमदेव ने छत्तीस प्रकार के शस्त्रास्त्रों का उल्लेख किया है। इन उल्लेखों की एक बड़ी विशेषता यह है कि इनसे अधिकांश शस्त्रास्त्रों का स्वरूप, उनके प्रयोग करने के तरीके तथा कतिपय अन्य बातों पर भी प्रकाश पड़ता है । धनुष, प्रसिधेनुका, कर्तरी, कटार, कृपारण, खड्ग, कौक्षेयक या करवाल, तरवारि, भुसुण्डी, मंडलान, असिपत्र, प्रशनि, अंकुश, कणय, परशु, या कुठार, प्रास, कुन्त, भिन्दिपाल, करपत्र, गदा, दुस्फोट या मुसल, मुद्गर, परिघ, दण्ड, पट्टिस, चक्र, भ्रमिल, यष्टि, लांगल, शक्ति, त्रिशूल, शंकु, पाश, वागुरा, क्षेपणिहस्त तथा गोलधर के विषय में इस परिच्छेद में पर्याप्त जानकारी दी गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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