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________________ सामग्री और भी महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होती है । रत्नपरीक्षा में शुकनास का उल्लेख हैं । वैद्यक या मायुर्वेद में काशिराज धन्वन्तरि, चारायण, निमि, धिषण तथा चरक का उल्लेख है। रोग और उनकी परिचर्या नामक परिच्छेद में इनके विषय में विशेष जानकारी दी है। संसर्गविद्या या नाट्यशास्त्र, चित्रकला, तथा शिल्पशास्त्र विषयक सामग्री भी यशस्तिलक में पर्याप्त और महत्वपूर्ण है । ललितकलायें और शिल्प विज्ञान नामक तीसरे अध्याय में इस सामग्री का विवेचन किया गया है। कामशास्त्र को सोमदेव ने कन्तुसिद्धान्त कहा है। यशस्तिलक में इसकी सामग्री विखरी पड़ी है। भोगावलि राजस्तुति को कहते थे। काव्य और कवियों में सोमदेव ने अपने पूर्ववर्ती अनेक महाकवियों का उल्लेख किया है। उर्व, भारवि, भवभूति, भतृहरि, भतृ मेण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ तथा राजशेखर का एक साथ एक ही प्रसङ्ग में उल्लेख है । सोमदेव द्वारा उल्लिखित अहिल, नीलपट, त्रिदश, कोहल, गणपति, शंकर, कुमुद तथा केकट के विषय में अभी हमें विशेष जानकारी नहीं उपलब्ध होती। वररुचि का भी एक पद्य उद्धृत किया गया है। दार्शनिक और पौराणिक शिक्षा और साहित्य की तो यशस्तिलक खान है। प्रौ० हन्दिकी ने इस सामग्री का विस्तार से विवेचन किया है, हमने उसकी पुनरावृत्ति नहीं की। परिच्छेद ग्यारह में आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। सोमदेव ने कृषि, वाणिज्य, सार्थवाह, नौ सन्तरण और विदेशी व्यापार, विनिमय के साधन, न्यास आदि के विषय में पर्याप्त सामग्री दी है। काली जमीन विशेष उपजाऊ होती है। सुलभ जल, सहज प्राप्य श्रमिक, कृषि के उपयोगी उपकरण, कृषि की विशेष जानकारी तथा उचित कर कृषि की समृद्धि में कारण होते हैं । तभी वसुन्धरा पृथ्वी चिन्तामरिण की तरह शस्य सम्पत्ति लुटाती है। वाणिज्य में सोमदेव ने स्थानीय तथा विदेशी व्यापार का उल्लेख किया है। स्थानीय व्यापार के लिए प्रायः प्रत्येक चीज का अलग-अलग बाजार या हाट होता था। बड़े-बड़े व्यापारिक केन्द्र पेण्ठास्थान कहलाते थे। देश-देश के व्यापारी आकर इन पेण्ठास्थानों में अपना रोजगार करते थे। पेण्ठास्थानों का संचालन राज्य की और से होता था या किसी विशेष व्यक्ति द्वारा। इनमें व्यापारियों को हर तरह की सुविधा दी जाती थी। मध्य युग में जो व्यापारिक प्रगति हुई उसमें . इन व्यापारिक मंडियों का विशेष हाथ था। भारतवर्ष में व्यापार करने के लिए जिस प्रकार विदेशी सार्थ पाते थे उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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