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________________ गले में पहनने के प्राभूषणों में एकावली, कंठिका, मौलिकदाम, हार तथा हारयष्टि का उल्लेख है । एकावली मोतियों की इकहरी माला को कहते थे। सोमदेव ने इसे समस्त पृथ्वी मंडल को वश में करने के लिए आदेशमाला के समान कहा है । गुप्त युग से ही विशिष्ट आभूषणों के विषय में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गयीं थीं। एकावली के विषय में बाण ने एक रोचक किवदन्ती का उल्लेख किया है । कंठिका कंठी को कहते थे। हार अनेक प्रकार के बनते थे। सोमदेव ने पाठ बार हार का उल्लेख किया है। हारयष्टि संभवतया प्रागुल्फ लम्बा हार कहलाता था । मौलिकदाम मोतियों की माला को कहते थे। भुजा के आभूषणों में अंगद और केयूर का उल्लेख है। केयूर भुजा के शीर्ष भाग में पहना जाता था। अंगद बहुत चुस्त होने के कारण ही संभवतया अंगद कहलाता था । स्त्री और पुरुष दोनों अंगद पहनते थे। कलाई के आभूषणों में कंकरण और वलय का उल्लेख है। कंकरण प्रायः सोने आदि के बनते थे और वलय सींग, हाथीदांत या कांच के । हाथ की अंगुली में पहना जाने वाला गोल छला उमिका कहलाता था। अंगुलीयक भी अंगुली में पहना जानेवाला आभूषण था । कटि के आभूषणों में कांची, मेखला, रसना, सारसना तथा धर्घरमालिका का उल्लेख है। ये सब करधनी के ही भिन्न-भिन्न प्रकार थे । मंजीर, हिंजीरक, तूपुर, तुलोकोटि और हंसक पैरों में पहनने के प्राभूषण थे। इस परिच्छेद में इन सब आभूषणों के विषय में विरतार से जानकारी दी गई है। ___परिच्छेद नव में केश विन्यास, प्रसाधन सामग्री तथा पुष्प प्रसाधन की सुकमार कला का विवेचन है । शिर धोने के बाद स्त्रियाँ सुगंधित धूप के धंये से केशों को धूपायित करती थीं। इससे केश भभरे हो जाते थे। भभरे केशों को अपनी रुचि के अनुसार अलकजाल, कुन्तलकलाप, केशपाश, चिकुरभंग, धम्मिलविन्यास, मौली, सीमन्तसन्तति, वेणीदंड, जटाजूट या कबरी की तरह सँवार लिया जाता था। केश सँवारने के ये विभिन्न प्रकार थे। कला, शिल्प और मृण्मूर्तियों में इनका अंकन मिलता है । इस परिच्छेद में इन सबका परिचय दिया गया है। प्रसाधन सामग्री में अंजन, अलक्तक, कज्जल, प्रगुरु, कंकोल, कुंकुम, कर्पूर, चन्द्रकवल, तमालदलधूलि, ताम्बूल, पटवास, मन:सिल, मृगमद, यक्षकर्दम, हरिरोहण, तथा सिन्दूर का उल्लेख है। पुष्पप्रसाधन में पुष्षों के बने विभिन्न प्रकार के अलंकारों के नाम आये हैं। जैसे- अवतंसकुवलय, कमलकेयूर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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