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सामाजिक व्यक्तियों के विषय में जानकारी दी गयी है। सोमदेवकालीन समाज अनेक वर्गों में विभक्त था । वर्ण-व्यवस्था की प्राचीन श्रौत-स्मार्त मान्यतायें प्रचलित थीं। समाज और साहित्य दोनों पर इन मान्यताओं का प्रभाव था। ब्राह्मण के लिए यशस्तिलक में ब्राह्मण, द्विज, विप्र, भूदेव, श्रोत्रिय, वाडत्र, उपाध्याय, मौर्तिक, देवभोगी, पुरोहित और त्रिवेदी शब्द आये हैं। ये नाम प्रायः उनके कार्यों के आधार पर थे।
क्षत्रिय के लिए क्षत्र और क्षत्रिय शब्द आये हैं। पौरुष सापेक्ष्य और राज्य संचालन आदि कार्य क्षत्रियोचित माने जाते थे।
वैश्य के लिए वैश्य, वणिक, श्रेष्ठि और सार्थवाह शब्द आये हैं। ये देशी व्यापार के अतिरिक्त टाड़ा बांधकर विदेशी व्यापार के लिए जाते थे। श्रेष्ठ व्यापारी को राज्य की ओर से राज्य श्रेष्ठी पद दिया जाता था।
शूद्र के लिए यशस्तिलक में शूद्र, अन्त्यज और पामर शब्द आये हैं । प्राचीन मान्यताओं की तरह सोमदेव के समय भी अन्त्यजों का स्पर्श वर्जनीय माना जाता था और वे राज्य संचालन आदि के प्रयोग्य समझे जाते थे।
अन्य सामाजिक व्यक्तियों में सोमदेव ने हलायुधजीवि, गोप, व्रजपाल, गोपाल, गोध, तक्षक, मालाकार, कौलिक, ध्वजिन्, निपाजीव, रजक, दिवाकीर्ति, प्रास्तरक, संवाहक, धीवर, चर्मकार, नट या शैलूष, चाण्डाल, शबर, किरात, वनेचर और मातंग का उल्लेख किया है । इस परिच्छेद में इन सब पर प्रकाश डाला गया है।
परिच्छेद दो में जैनाभिमत वर्णव्यवस्था और सोमदेव की मान्यताओं पर विचार किया गया है। सिद्धान्त रूप से जैन धर्म में वर्णव्यवस्था की श्रीत-स्मार्त मान्यतायें स्वीकृत नहीं हैं। कर्मग्रन्थों में वर्ण, जाति और गोत्र की व्याख्या प्रचलित व्याख्यानों से सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में चतुर्वर्ण की व्याख्या भी कर्मणा की गयी है। सिद्धान्त रूप से मान्यताओं का यह रूप होते हुए भी व्यवहार में जैन समाज में भी श्रौत-स्मात मान्यतायें प्रचलित थीं। इसलिए सोमदेव ने चिन्तन दिया कि गृहस्थ के लौकिक और पारलौकिक दो धर्म हैं। लोकधर्म लौकिक मान्यताओं के अनुसार तथा पारलौकिक धर्म आगमों के अनुसार मानना चाहिए। प्राचीन कर्मग्रन्थों से लेकर सोमदेव तक के जैन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर विचार किया गया है।
परिच्छेद तीन में आश्रम-व्यवस्था और संन्यस्त व्यक्तियों का विवेचन है। आश्रम-व्यवस्था की प्राचीन मान्यतायें प्रचलित थीं। ब्रह्मचर्य प्राश्रम
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