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________________ यशस्तिलक की शब्द- सम्पत्ति कुरंगांक : ( ४५ / ६ उत्त० ) : चन्द्र कुवलीफलम् ( कुवलीफलस्थूलत्रापुषमणि, ३९८ ३ ) : बदरी फल कुवलयित ( ४६५१५ ) : कुवलय सदृश कूर्चस्थानम् (कूर्चस्थानविनिवेशित प्रसून समूह, २८.६, उत्त० ) : श्रुतसागर ने इसका अर्थ संभोगोपकरण रखने का स्थान किया है । कूटपाकल : ( करिणां कूटपाकल इव, १०१।७ उत्त० ) : हस्ति वातज्वर । कूर्पर (४४ । १०त० ) : कछुए का खोल केवलम् (यस्योन्मीलति केवले, २1१ ) : केवलज्ञान | यह जैन सिद्धान्त का एक पारिभाषिक शब्द है । जैन धर्म में ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ज्ञान । जो ज्ञान तीन काल के तीनों लोकों के पदार्थों को एक साथ हस्तामलकवत् स्पष्ट जानता है, उसे केवलज्ञान कहा गया है | केसर : ( ३९ ३ ) : केसर केसरः (कान्तवक्त्रमधूनि वाञ्च्छति पुनर्यस्मिन्त्रयं केसरः, ५९०।१० ) : बकुल वृक्ष कैवर्तः (ते च कैवतस्तिदादेशात्, (२१६।७ ) : मछुआ कोकुन्दः ४०६ । १ ) श्रुतसागर ने कौकुन्द का अर्थ अण्डराणि किया है । कोणः (कोणको टिकलकन्दुकान्तर, (कलकको कुन्दो हुमरम् Jain Education International ३१५ ३२०१ ) : किनारे पर मुड़ी हुई लाठी, जैसी आजकल हाकी बनती है । कोणपः (कोणपकरालकर विकीर्यमाण, ४८/६) : राक्षस कोथः ( कोथ प्रदीर्णत नुतुम्बफलोपमेयाम्, १२२८) कुष्टरोग कोलिकः ( १२६ । ४ ) : जुलाहा । देशी भाषा में जुलाहा को अभी भी कोरी कहा जाता है । कोशारोपणम् ( करिणां कोशारोपणमकरवम्, ५०६।३ ) : दांत मढ़ना । यह गजशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है । गज के दांतों के किनारों पर लोहे, चांदी या स्वर्ण से मढ़ना कोशारोपण कहलाता है । कोहलिनीफलम् (कोहलिनीफलपुष्पयोरिव सह भावे, ३१७।३ ) : कूष्माण्ड, कुम्हड़ा । कुम्हड़ा का फल और पुष्प एक साथ ही बेल में लगते हैं। आगे पुष्प और उसी से लगा हुआ फल होता है । जिस पुष्प में फल नहीं रहता, वह बिना फल के ही झड़ जाता है। अर्थात् उसमें बाद में फल नहीं आता । कौलेयकः (१८६।६ उत्त० ) : कुत्ता क्षपा (४६४।२) : हरदी क्षुपः ( ७०1१ हि० ) पौधा क्षिपस्तिः (४३।५ उत्त० ) : बाहू क्षुद्र: (१४७।९ उत्त० ) : दुष्ट जानवर | मो०वि० में क्षुद्र का अर्थ केवल दुष्ट दिया है । क्षेत्रज्ञः (१३/३ ) : कृषि विशेषज्ञ या कृषक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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