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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन कुट्टिमभूमिः ( यत्र स्खलद्गतैर्वालैः कुथितम् (उन्दुरमूत्रमितकुथितातस्य तैल. कान्ताः कुट्टिम भूमयः, १९७।५) : धारावपातप्रायम्, ४०४।६) : दुर्गन्धआंगन
युक्त । कुथितम् कुथ् धातु से बना है । कुठः (२०९।१) : वृक्ष । श्रुतसागर ने सोमदेव ने इसका अन्यत्र भी प्रयोग कुठार को व्युत्पत्ति देते हुए लिखा किया है (कुथ्यत्कलेवरकरंकहतहै- कुठान् वृक्षान् इति गच्छतीति प्रचारः, ११७।६; कुथ्यत् स्नसाजाल. कुठारः।
कम्, १२९।१२)। व्याकरण ग्रन्थों कुडया (स्तबकरचितकुड्याः ,५३४।४): में ही इसका प्रयोग देखा जाता है। भित्ति, दीवाल
किंपचः (किंपचानां प्रथमगण्यः, कुण्ठः (१८०१३) : मन्द
४०३ ७) : कृपण कुत्कोलः (स्फटिकोत्कीर्णक्रोडाकुक्कोले- कुफणिः (आकुफणिकृतकालायसवलय, रिव, २११२): पर्वत । क्रोडाकुत्कोल ४६२।२) : घुटना अर्थात् कीड़ापर्वत । कुत्कोल का कुम्भिन (२२१।६) : हाथो उल्लेख अन्यत्र भी हुआ है (सर्जार्जुन कुम्भिनी (मितद्रवखुरक्षोभितकुम्भिनीविजयिषु कुत्कीलकुजेषु, ५४३।४)। भागम्, ४६५।१): पृथ्वी, सोमदेव ने मो० वि० में कुकील शब्द पर्वत के । इसका एकाधिक बार प्रयोग किया है लिए आया है।
(३०७।६)। कुतपिन् ( नृत्ताय वृत्तः कुतपीव भाति कुम्भीनसः (३७८०२) : सर्प
२२९।२ उत्त०) : नगाढ़ा बजाने कुम्भीरः (कुम्भीरभयभ्राम्यत्, २०८०५ वाला । कुतप को मो० वि० में एक उत्त० ) : नक्र, मगर, (महा० प्रकार का वादित्र कहा है। सोमदेव १३।३।५९) ने कुतप से ही कुतपिन् बनाया है। कुम्पलः (पतत्संतानकुम्भल-, ९७।१): कुतपांकुर (अम्बुजासनशयमिव कुत- कोंपल पांकुरालंकृतमध्यम्, ३२०।२) : दर्भ कुमुदचक्षुष (१५।७ उत्त०) : चन्द्र या ताजा कुशा । घास
कुररः (कु (रकूजितबहलम, २०९।६ कुन्द ( हेमन्त इव पल्लविताश्रितकुन्द- उत्त०): कुरर पक्षो (रामा० ३।६०। कन्दलः, २०९।७) : श्रुतसागर ने २१) इसका अर्थ अवभृथ (यज्ञोपरान्त कुरलः (५६९।३, कुरलालिकुलावस्नान) किया है, जो ठीक नहीं लिह्यनानभूलता, ५२५।२): अलक, लगता। कुन्द का अर्थ कोशों में धुंघराले बाल कमल आता है।
कुरंगिका (२०४।५) : हरिणी
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