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यशस्तिलक की शब्द सम्पत्ति
३१३ कातरेक्षणः (कातरेक्षणविषाणक्वाण- च्छागी पुनः कासरः,२२५।२ उत्त०): विनिवेदित, ३९९।१) : महिष भैंसा । एक अन्य प्रसंग में (४८।५) भी कादवेयः (अक्रमगति कावेयेषु, २०२। सोमदेव ने इसका प्रयोग किया है।
४) : सर्प (शिशुपाल० २०॥४३) काहलः (मिथुनचरपतंगप्रलापकाहले, काण्डः (केतुकाण्डचित्रः, १८।४):दण्ड, २४७१६): गम्भीर । सोमदेव ने काहल ध्वजा का डंडा या बांस
नामक वादित्र का भी उल्लेख किया कामवत् (अधोक्षजमिव कामवन्तम्, है। २९८।४) : यह गजशास्त्र का एक कांदिशीकः (कांदिशीक इवानवस्थितपारिभाषिक शब्द है। समस्त प्राणियों क्रियोऽपि, ४।२): भय से भागा हुआ को मारने की इच्छा रखने वाले गज किंपाक (किंपाकफलमिवापातमधुरः, को कामवत् कहा जाता है। मो० ९७७ उत्त० ): कच्चा अथवा दोषवि० में इसका केवल तीव्र इच्छावान् पूर्ण पका। रामायण में (२।६६.६) (डिज़ायरस) अर्थ दिया है। किंपाक का उल्लेख आया है । कारण्डः (उत्तरलतरतरत्कारण्डोच्च. किंपिरि (किंपिरिपर्यन्तस्फुरत्कृशानुण्डतुण्ड-,२०८।१ उत्त०) चक्रवाक १९।३) : उपरितल, छत कारवेलम् (कोहलं कारवेलम्, ५१६। किर्मीरः (किर्मीरमणिविनिर्मितत्रिशर७) : करैला
कण्ठिकम्, ४६२।१): चितकबरा कालशेयम् (कट्वलकालशेयविशिष्टः, कीकटः (कोकटानामुदाहरणभूमिः, ४०६।४): तक्र, मट्ठा, छांछ
४०३।६) : निर्धन कालागुरु (३६८५) : कृष्ण अगर कीकस (११६।२) : हड्डी
कीर्तिशेष (१९२१२ उत्त०) : मृत कालिदासः (अकविलोकगणनमपि कुजः (भूर्जकुजवल्कलदुकूले, २४६।२): सकालिदासम्, १९६।१ उत्त०): वृक्ष । पृथ्वी का एक नाम कोश ग्रन्थों आम्रवृक्ष
में 'कु' भी आता है। उसी से बनाकालेयः (२४३।४) : केसर
कर कुज का वृक्ष अर्थ में प्रयोग कालेयकलंकः (कालेयकलंकपंकिला- किया है।
चार १६३।३) : लोकापवाद कुटः (पलितांकुरितकुटहारिकाकुन्तलकाश्यपी (काश्यपीश्वरेण, १४५।३): कलापैः, ५६।२) : घट । पानी भरने पृथ्वी (महा० १३।६२।६२, भामिनो वाली नौकरानियों के लिए सोमदेव वि० ११६८)
ने कुटहारिका शब्द का प्रयोग कासरः (सा मृत्वा कमनीयबालधिरभू- किया है ।
चन्दन
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