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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन करटिरिपुः (५६।३) : सिंह कशा (समपितकशावशेषकदनकन्दुककरपत्रम् (१२३।८) : करीत, आरा विनोदविनीताजानेयजुहूराणनिवहः, करिबैरिन् (२०११६ उत्त०) : सिंह २१४१४) : कोड़ा। घोड़े को हाकने करंकः (चूर्ण्यमानकरंकप्राकारम्, वाला चमड़े का कोड़ा जिसे आजकल ४८.५) : कंकाल, मरे हुए पश के चामकोड़ा भी कहते हैं। शरीर का ढांचा।
कशिपु (३४६।३): भोजन और वस्त्र कलशी (निरवधिप्रधावप्रारम्भैर्मथ्यमान कस (३५१६) : जाओ पयस्यां कलशीमिव, २१५७ उत्त०) कक्षः (२५०।२) : लता मथानी
क्रव्यादः (क्रव्यादसमाजसंह्वयव्यसनः कलहित (६१९६८) : क्रोधित
११८७) : राक्षस कलम् (आमलकशिलातलमिव स्वच्छ
काकतालीयन्याय (२४९।३) : असंकलम्, २०९।७ उत्त०):काय, शरीर
भावित संयोग काकतालीयन्याय कह. कलिः (युगत्रयावसानमिव कलिपरि
लाता है। कौआ ताल पर आकर गृहीतम्. १९५।४ उत्त०) : हरड़ का
बैठा और ताल का फल गिरा। यद्यपि पेड़, कलिकाल
ताल का फल गिरना ही था, किन्तु
कौआ का आना एक संयोग हुआ । कलाची (मृणालवलयालंकृतकलाची
कौआ का आना और ताल का गिरना देशाभिः ५३२।५): कलाई
यह काकतालीयन्याय है। कवचम् (असमनोकरसमपि स.कवचम्,
काकमाची (गुडपिप्पलिमधुमरिचैः १९७.३ उत्त० ) : पर्पट वृक्ष ।
साधं सेव्या न काकमाची,५१२।१०): कंकेलकः (कंकेलकोपलसंपादितभित्ति- मकोय, वायसी (अम० २।४।१५२) :
भंगिकासु, ३८१५) : स्फटिक मणि आयुर्वेद में यह महत्त्वपूर्ण औषधि कंचलिका (देव्याः कंचुलिका मदन- मानी जाती है (भाव. मिश्र, ६। मंजरिकानामाग्राहि, २१६।४ उत्त०): ४।२४६-४७) । दासी, अन्तःपुरको वृद्ध दासी । जिस काकनन्तिका (काकनन्तिकाफलप्रकार अन्तःपुर का वृद्ध परिचारक मालोपरचित, ३९८०४) : गुंजाफल, कंचुकी कहलाता है उसी प्रकार वृद्ध गंमची परिचारिका के लिए सोमदेव ने काकोलः ( उलकबालकालोकनाकुलकंकि शब्द का प्रयोग किया है। काकोलकूल १०२।१) : कोआ(महा. कषपट्टिका (३७६।१२) : कसौटी। उ० ५।१२, याज्ञ० स्मृ० १।१७४, यह शब्द श्रुतसागर ने निकषाश्म के महा० ११११६६७)। पर्याय में दिया है।
कांचनार (१०६।१) : कचनार पुष्प
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