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________________ यशस्तिलक को शब्द-सम्पत्ति उत्तारः (६१६१६) : उत्कृष्ट उपकण्ठम (१८०१३) : ग्राम या नगरउत्तानशयः (२३२६ ) : ऊपर को के बाहर का निकट प्रदेश । मुंह करके सोना उपकार्या (२२१।६) : तम्बू उद्भेदः (२२।६ उत्त०) : अंकुर उपदंश (ऐरुकोपदंशनिकायम्, उद्धानम् (२२७।४ उत्त०) : अंगार ४०४७) : चबैना, किसी भी चीज उदकद्विप ( उद्दामोदकद्विपदशनदश्य को अवकाश के क्षणों में रुचि के लिए मान, २०९। ३ उत्त०) : जलगज चबाना (मो० वि०)। उदक और द्विप शब्दों को मिलाकर उपन्यासः (तथोपन्यासहीनस्य वृथा जलहस्ती के अर्थ में सोमदेव ने यह शास्त्रपरिग्रहः, ४८११४) : कथन, एक नया शब्द बना दिया है। प्रयोग (मालवि० ११३८)। उदक्या (३३२।१) : रजस्वला स्त्री उपलम्बा (उपलम्बाप्रलम्बस्तम्बवि. मनु० ४.५७।५, भाग० ६।१८।४९ लम्बमान, १९८१३ उत्त०): लता में भी यह शब्द आया है। उपस्पर्शन : (आचरितोपस्पर्शनः, उदन्या (अनन्यसामान्योदन्यानुद्रुत, ३२३१६): आचमन, मो० वि० में २००२ उत्त०) : प्यास उपस्पर्शनम् का अर्थ स्नान दिया हुआ उदन्तः (मियः संभाषणकथा प्रावर्त है। तायमुदन्तः, २२४।४) : वार्ता उमा ( अविषमलोचनोऽपि सम्पन्नोमाउदारम् (२।२) : अति मनोहर समागमः, ५३।३) : कोति, उदुम्बर (६६।१ उत्त०) : श्रुतसागरने इसका अर्थ जन्तुफल किया है। उपसंव्यानम् (८२१७ उत्त०) : जैन साहित्यमें बड़, पीपल, कमर, अधोवस्त्र कठूमर और पाकर इन पांच फलों को उरणः (२१९।२ उत्त०) : भेड़ उदुम्बर कहा जाता है । इनमें सूक्ष्म उल्लोचः (१९।१, ५९५।९): चन्द्राजीव पाये जाते हैं, इसलिए जैन तप या चंदोवा गृहस्थ को इनका खाना त्याज्य है। औशीरम (लयनशिलाश्लाघ्यमेखल: उन्माथः (४७१६) : हिंसक परिकल्पितीशोर इव, १३४।२ ): उन्दुरः (उन्दुरमूत्रमितकुथितातस्य तल, बिस्तर ४३।२ उत्त०) : मूषक, चूहा एकानसी (एकानसीमनुप्राप्य, २२६।१ उप्तम् (लवने यत्र नोप्तस्य, १६७): उत्त०) उज्जयिनी बोयी हुई फसल एकायन (३७२।२): एकाग्न पार्वती . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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