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________________ ३०८ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन आरेयः (वालेयकारेयजातिभिः, इन्दिन्दिरः (१२१:३) : भ्रमर १८६।३ उत्त०) : भेड़ इन्दिरामन्दिरम् (१८९।४) : आरः (९५।६) : मंगल गृह लक्ष्मीनिवास, विष्णु का एक नाम । आरामाः (ब्रह्मवादा इव प्रपंचिता- इन्दुमणिः (२०५।५ उत्त०) : चन्द्ररामाः, १३।४) : अविद्या कान्त आवान ( तापसावानवितानित, ५।१ इरंमदः (इरंमददाहदूषितविटपः पादप उत्त०) : तपस्वियों के गैरिक वस्त्रों इव, २२७।२ उत्त०) मेघ के लिए यहां आवान शब्द का प्रयोग इरंमदाहः ( २२७।२ उत्त० ) : किया है। बिजली आस्तरकः (४०३।५) : शय्या परि- ईषा ( रविरथेषाडम्बरम्, ३०१३ ) : चारक लम्बी लकड़ी जो हल या रथ में आसुतीवलः (पर्युपास्यासुतीवलद्वि- लगायी जाती है। हल की लकड़ी लगायी जाती है। तीयः, ३२४.१) : यज्वा-यज्ञ करने हलीषा कहलाती है । बुंदेलखण्ड में वाला अभी भी हल की लकड़ी को हरीस आसेचनकः ( १७६।३ ) : जिसके कहते हैं । लांगलीषा, हलीषा इत्यादि देखने से जी न भरे। अमरकोष में प्रयोग व्याकरण ग्रन्यों में मिलते हैं । लिखा है कि जिसके देखने से तृप्ति । साहित्य में इसका प्रयोग कम देखा न हो उसे आसेचनक कहते हैं। जाता है। (३।११५३)। उच्चिलिंगम् (लपनचापलच्युतोच्चिआश्चर्यित (१८४।४) : चकित लिंग, १९८३१ उत्त०) : अनार आशाकरटिन् (२८१) : दिग्गज उटजम् (२१८१९ उत्त०) : घर इत्वरः (३३१।४) : शीघ्र गमनशील, उडुप (तरंगवडिकोडुपसंपन्नपरिकराः, आवारा २१७।१ उत्त०) : डोंगी इन्दिरानुजः (रत्नाकर इवेन्दिरानुजेन, उत्तंसः (२४६।२) : कर्णपूर, मुकुट २४२।४) : चन्द्रमा। इन्दिरा लक्ष्मी उत्तायकः ( उत्तायकस्य हि पुरुषस्य का नाम है। लक्ष्मी और चन्द्रमा हस्तायातमपि कार्य निधानमिव न दोनों की उत्पत्ति समुद्र से मानी सुखेन जोयति, १४३१५ उत्त०) : जाती है। इस नाते चन्द्रमा लक्ष्मी उतावला का लघुभ्राता हुआ । इस अर्थ साधर्म्य उत्तायकत्वम् ( केवलमत्रोत्तायकत्वं के आधार पर सोमदेव ने इस शब्द परिहर्तव्यम्, १४३।५ उत्त० ) : का गठन किया है। उतावलापन, जल्दीबाजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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