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यशस्तिलक की शब्द-सम्पत्ति
३०७ अहिपति (१६७।११) : सर्पो का आनकः (२१४११) : आनक नामक स्वामी अर्थात् शेषनाग
__ अवनद्ध वाद्य अहिवलयित (४१५।१०) सर्पवेष्टित आनत (१७९।४) नाचते हुए अहीश्वरः (३४४:१) : सों का आनायः (तन्नयानायनिक्षेपात्, ३०८। ईश्वर अर्थात् शेषनाग
१०, युवजनमृगाणां बन्धनायानाय अंगजः (सत्त्वं तिरोभवति भीतमिवांग- इव, ५८।५ उत्त०) : जाल जाग्नेः, २८२।३) : काम
आमलकम् (आम लकशिलातलमिव
स्वच्छकलम्, २०९७ उत्त०):स्फटिक आकर्षः ( आकर्षण शीर्षदेशे दृढ़दत्त.
आलमकम् (सर्पिः सितामलकमुद्गप्रहारकलः, १९७।४ उत्त०) : फलक,
कषाययुक्तम्, ५१८११) : आँवला क्रोडापट्ट आच्छोदना (जलचाल इवाच्छोदनाभि
आम्रातकम् (अगस्तिचूताम्रातक
पिचुमन्द, ४०५।३): आँमड़ा रतोऽपि, ४१६४) : स्वच्छ जल,
आमिक्षा (आमिक्षया च समेधितशिकार, शिकार या मृगया के अर्थ में आच्छोदना शब्द का प्रयोग साहित्य
महसम्, ३२४।२): श्रुतसागर ने
लिखा है कि उबाले हुए दूध में दही में कम देखा जाता है।
मिलाने से आमिक्षा बनती है (शृते आचारान्धः (बुधसंगविदग्धोऽपि कथं । क्षोरे दधिक्षिप्तमामिक्षा कथ्यते बुधैः, त्वमद्याचारान्ध इवावभाससे, ८८२ सं० टी०)। उत्त०) : मूर्ख, व्यवहार में अंधा
आयःशूलिकः ( १४११३ ) : कठोर अर्थात् मूर्ख । अर्थ को अपेक्षा सोमदेव
कर्म करनेवाला ने यह शब्द स्वयं बना लिया है।
आवसथः (पुत्रप्रार्थनमनोरथावसथस्य, आज्यम् (आज्यावीक्षणमेतदस्तु,
तदस्तु, २२४।२) : गृह, पृष्ठ ७८१६ पर भी
२२ २५११८, नासिकांजलिपेयपरिमल:
इसका प्रयोग हुआ है। प्राज्यराज्य:, ४०१।३) : घृत
आवालः ( बिभाबालभूमिसु, आजवकम् (३६।२) : धनुष
९७।६) : क्यारी । वृक्ष के चारों ओर आतपनयोगः ( आतपनयोगयुतोऽपि, पानो रोकने के लिए बनायी गयी मिट्टी १३७।४, उत्त०) : ग्रं.ष्मकाल में खुले
की मेंड़। साहित्य में आलवाल का मैदान में पर्वत आदि पर तपस्या प्रयोग मिलता है ( रघु० १५१, करना आतपनयोग कहलाता है। शिशु० १३५०)। आधोरणः (३०।५) : आधोरण नामक आपीडः (पिष्टापीडविडम्व्यमानजरती, गजपरिचारक
२२७१५) : समूह
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