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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन एकशृंगमृगः (विषाणविकटमेकशृंग. कृकः (१९०।१ उत्त०) : गर्दन
मृगमण्डलमिव,४६११७) : गैंड़ा हाथी कृष्णलेश्या (कृष्णलेश्यापटलैरिव, एडः ( जड एव एडो वा, १३९।४ २४८।२४ उत्त०) : लेश्या जैन
उत्त०) : बधिर, बहरा (देशी) सिद्धान्त का एक पारिभाषिक शब्द एणायित (१२८.५) : मृग के समान । है। जीव के ऋजु और वक्र आदि आचरण
भाव लेश्या कहलाते हैं । इसके छह ऐकागारिकः (परिमुषितनगरनापित
भेद है-पोत, पद्म, शुक्ल, कृष्ण, प्राणद्रविणसर्वस्वमेकमेकागा कम्,
नील, कापोत । सबसे ऋजु परिणाम २४५।१७) : चौर
__ वाले जीव को शुक्ल लेश्या मानी ऐलकः (छगलाविकैलकसनाथस्य,
गयी है और सबसे कुटिल परिणाम २२१७ उत्त०) : भेड़ । (प्राकृत वाले की कृष्ण लेश्या । एलग दस० ५:१।२२, पन्न०१) कः (१००।५) : वायु । (महा० ३।१४२।३७)
ककुभः (कुंभीरभयभ्राम्यत्ककुभकुहूत्कार ऐर्वारुकम् (असमस्तसिद्धर्वारुकोपदंश- मुखरम्, २०८१५ उत्त०) : बाल कुर्कुट निकायैः, ४०४।७) : कड़वी ककड़ी। कजम् ( कजकिंजल्ककलुषकालिन्दी, कड़वी कचरिया (अम० २।४।१५६) ४६४।२, कजकिंजल्कपुंज, २०७:४ औधस्यम् ( स्मरसंमर्दछदितौधस्यैः, । उत्त०) कमल का एक अर्थ पानी भो २४९।३) : दुग्ध
__ कोश ग्रन्थों में है। उसी से 'के जायते औदनम् (जोर्णयावनालोदनादि, इति कजम्' इस प्रकार कमल अर्थ में ४०४।५) : भात
कज का प्रयोग किया है। क्वथ्यमान (क्वथ्यमानासु जलदेवता- कच्छपः (२०९।३ उत्त०) : कछुआ नामावसथसरसोषु, ६६।५) : उबलना कटकः (४५१६) : सेना संभवतया आयुर्वेद का क्वाय (काढ़ा) कटिन् (१६९१३ उत्त०) : जंगली शब्द भी इसो से बना है। इस तरह सूअर क्वथ्यमान का अर्थ होगा,काढ़े की तरह कदर्य : (कदर्याणां धुरि वर्णनीयः, उवल कर छनकना-कम पड़ जाना। ४०४।१) : मलिन वस्त्रधारी । श्रुतसंस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग नहीं सागर ने एक पद्य दिया है--कदर्यमिलता । वास्तव में मूलतः यह वैद्यक. होनकोनाशकिपचानमितपचाः। कृपणः शास्त्र का ही शब्द ज्ञात होता है। क्षुल्लकः क्षुद्रः क्लीबा एकार्थवाचकाः। अन्यत्र भी सोमदेव ने इसका प्रयोग अर्थात् ये शब्द एकार्थवाचक हैं। किया है ( संशुष्यत्सरिति क्वथत्तनु. कदलम् (दधितक्राभ्यां कदलम् , मिति, ५३४।१)।
५१२।९) : केला
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