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यशस्तिलक की शब्द- सम्पत्ति
अन्तर्वाणिनः (नर्तकशिरोमणिभिरन्त र्वाणिभिः ४७७।८) शास्त्रवेत्ता, विद्वान्
अन्धः ( विषकलुषितमन्धः कस्य भोज्याय जातम्, ४१६ । १ ) : भोजन ( मूलमिवानन्तालतायाः,
अनन्ता
२०४/५ उत्त० ) : पृथ्वी अनंग: ( ऐरावतकुलकलभैरिवानंगवनस्य, २।१३, ९१।२ ) : आकाश अनायतनम् ( १४३१७ ) : अनुचित
स्थान
अनाश्वान्: (५०।६) : अनशनशील अशन् शब्द से सोमदेव ने अनाश्वान् कर्ताकारक का रूप बनाया है । अनीकस्थः ( अनीकस्थेन विनिवेदितद्विरदावस्था, ४९५/४ ) : अनीकस्थ नामक राजसेना का अधिकारी अनुप्रेक्षा ( संसारसागरोत्तरण पोतपात्रदशा द्वादशाप्यनुप्रेक्षा, २५६।३ ) : अनुप्रेक्षा जैन सिद्धान्त का एक पारिभाषिक शब्द है । संसार से विराग उत्पन्न करनेवाली भावनाओं का बारबार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है । ये बारह मानी गयी हैंअनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, पृथक्त्व, अशुचि, आस्रव, संवर, संवर, निर्जरा, लोक, धर्म और बोधिदुर्लभ । सोमदेव ने इनका विस्तार से वर्णन किया है । अनुपदीना ( अनवानुपदीना पटलसम श्रवसम्, ४२।८ उत्त० ) : जूती
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अनुरुसारथिः (अनुरुसारथिरथोन्माथ, २७।४ ) : सूर्य ( शिशु० १ २ )
अण्डज : ( उण्डीनं
मुहुरण्डजै:,
६१५।९ ) : पक्षी
अणकेहितः ( अणकेहितचिन्तामणिः,
४५०/११ ) : दुराचारी
( अप्रत्नरत्नचयनिचित
अप्रत्नम् कांचनकलश, १८/५ ) : नवीन अभ्रपुष्पम् ( आमोदसंदर्भिता पुष्पैः, २००२) : जल अभ्रिय: (अभ्रियसंदर्भनिर्भरं नभ इव, ४६४.५ ) : वज्राग्नि
अभीरुः (सुभटानीकमिवाभीरुप्रतिष्ठितम्, १९५।१ उत्त० ) : भय रहित, इन्दीवरी अम्बरिषम् (अनम्बरिषमप्यरिभेदस्फारकम्, १९५।४ उत्त० ) : युद्ध अमरधेनुः (२२०१५ ) : कामधेनु अमृता (चन्द्रमिवामृतास्पदम्, १९४।३ उत्त० ) : गुरुचि नामक वनीषधि अमृतमरीचिः (२०१७ उत्त० ) : चन्द्र अमृतरुचि: (१७१ । ३) : चन्द्र अमृतरोचिषू (१७२।५) : चन्द्र अरिभेदः (१९५४): खदिर वृक्ष अलगर्द (निर्मोदाल गदंगल गुहास्फुरत्, (४५।३ ) : सर्प
अलाबूफलम् (४०४७) : तूंमा अलिक : (१५९ / ९ ) : ललाट अवहारः ( अम्बुरुह कुह र विहरदवहार, २०८/६ उत्त० ) : जलव्याल, मगर
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