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________________ ३०४ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन दी गयी है। २. सोमदेव के प्रयोग के आधार पर जिन शब्दों के अर्थ पर विशेष प्रकाश पड़ता है, उन शब्दों के पूरे सन्दर्भ दे दिये हैं। ३. जिन शब्दों का केवल अर्थ देना पर्याप्त लगा, उनका सन्दर्भ संकेत तथा अर्थ दिया है। शब्दों पर विचार करने का आधार श्रीदेवकृत टिप्पण तथा श्रुतसागर की अपूर्ण संस्कृत टीका तो रहे ही हैं, प्राचीन शब्दकोश तथा मोनियर विलियम्स और प्रो० आप्टे के कोशों का भी उपयोग किया है। स्वयं सोमदेव का प्रयोग भी प्रसंगानुसार शब्दों के अर्थ को खोलता चलता है। श्लिष्ट, क्लिष्ट, अप्रचलित तथा नवीन शब्दों के कारण यशस्तिलक दुरूह अवश्य लगता है, किन्तु यदि सावधानीपूर्वक इसका सूक्ष्म अध्ययन किया जाये तो क्रम-क्रम से यशस्तिलक के वर्णन स्वयं ही आगे-पोछे के सन्दर्भो को स्पष्ट करते चलते हैं। इस प्रकार यशस्तिलक की कुंजी यशस्तिलक में ही निहित है । सोमदेव की बहुमूल्य सामग्री का उपयोग भविष्य में कोश-ग्रन्थों में किया जाना चाहिए। अकम् (अकविलोकगणनमपि, १९६।१ अग्रमहिषी (१२३३१) : पटरानी उत्त०): कष्ट अध्यक्षम् (४०६।९): प्रत्यक्ष अकल्पः ( परिपाकगुणकारिणों क्रिया- अजिनजेण (२१८.९ उत्त०) : चमड़े मकल्पस्य, ४३।२) : रोगी की जीन अर्कः ( ४०५।२ ) : आक का वृक्ष अजगवः (अजगवैरिन्द्रायुधस्पषिभिः, अर्कनन्दनः ( भूयाद्गन्धवहैः सार्धमनु- ५७९।८) : धनुष लोमोर्कनन्दनः, ३३४।१) : कोआ अर्जुनः (१९४५ उत्त०) : मयूर, अखिलद्वीपदीपः (विदूरितरजोभि- अर्जुन वृक्ष रखिलद्वीपदीपरिव, ९११३ ) : सूर्य अर्जुनज्योतिः ( सदाचारकरवार्जुनसोमदेव ने तात्पर्य के आधार पर यह ज्योतिषम्, ३०४।४ उत्त०) : सूर्य शब्द स्वयं गढ़ा है। सूर्य सारे संसार अतसी ( कुथितातस्यतैलधारावपातको दीपक की तरह प्रकाशित करता है, प्रायम्, ४०४१५) : अलसी इसलिए उसे अखिलद्वीपदीप कहा है। अदितिसतः (अदितिसुतनिकेतनपताअगमः ( अगमविटपान्तरितवपुषाम्, काभोगाभिः, ४५।४) : सूर्य ९५।१, अगमाग्रपल्लवभरम्, १९९।२ अध्वनयः (३६।२) : पथिक उत्त० ) : वृक्ष अधोक्षजः (अधोक्षजमिव कामवन्तम्, अगस्ति (४०५।३) : अगस्त वृक्ष २९८।४) : नारायण अग्निजन्मन् ( २०३।८ उत्त०): अन्तर्वशिक् (२३।९ उत्त०) : अन्तः पुररक्षक सैनिक कुत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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