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यशस्तिलक की शब्द-सम्पत्ति यशस्तिलक संस्कृत के प्राचीन, अप्रसिद्ध, अप्रचलित तथा नवीन शब्दों का एक विशिष्ट कोश है। सोमदेव ने प्रयत्नपूर्वक ऐसे अनेक शब्दों का यशस्तिलक में संग्रह किया है। वैदिक काल के बाद जिन शब्दों का प्रयोग प्रायः समाप्त हो गया था, जो शब्द कोश-ग्रन्थों में तो आये है, किन्तु जिनका प्रयोग साहित्य में नहीं हुआ या नहीं के बराबर हुआ, जो शब्द केवल व्याकरण-ग्रन्थोंमें सीमित थे तथा जिन शब्दों का प्रयोग किन्हीं विशेष विषयों के ग्रन्थों में ही देखा जाता था, ऐसे अनेक शब्दों का संग्रह यशस्तिलक में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त यशस्तिलक में ऐसे भी अनेक शब्द हैं, जिनका संस्कृत साहित्य में अन्यत्र प्रयोग नहीं मिलता। बहुत से शब्दों का तो अर्थ और ध्वनि के आधार पर सोमदेव ने स्वयं निर्माण किया है । लगता है सोमदेव ने वैदिक, पौराणिक, दार्शनिक, व्याकरण, कोश, आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्वशास्त्र, गजशास्त्र, ज्योतिष तथा साहित्यिक ग्रन्थों से चुनकर विशिष्ट शब्दों को पृथक्-पृथक् सूचियां बना ली थी और यशस्तिलक में यथास्थान उनका उपयोग करते गये। यशस्तिलक को शब्द-सम्पत्तिके विषय में सोमदेव ने स्वयं लिखा है कि काल के कराल व्याल ने जिन शब्दों को चाट डाला उनका मैं उद्धार कर रहा हूँ। शास्त्र-समुद्र के तल में डूबे हुए शब्द-रत्नों को निकालकर मैंने जिस बहुमूल्य आभूषण का निर्माण किया है, उसे सरस्वती देवी धारण करे।'
प्रस्तुत प्रबन्ध में मैंने ऐसे लगभग एक सहस्र शब्द दिये हैं। आठ सौ शब्द इस अध्याय में है तथा दो सौ से भी अधिक शब्द अन्य अध्यायों में यथास्थान दिये हैं। इस अध्याय में शब्दों को वैदिक, पौराणिक, दार्शनिक आदि श्रेणियों में वर्गीकृत न करके अकारादि क्रम से प्रस्तुत किया गया है। शब्दों पर मैंने तीन प्रकार से विचार किया है - १. कुछ शब्द ऐसे हैं, जिन पर विशेष प्रकाश डालना उपयुक्त लगा। ऐसे शब्दों का मूल संदर्भ, अर्थ तथा आवश्यक टिप्पणी १. अरालकालव्यालेन ये लीढाः साम्प्रतं तु ते ।
शब्दाः श्रीसोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ।। उद्धृत्य शास्त्रजलधेनितले निमग्नैः पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । या सोमदेवविदुषा विहिता विभूषा वाग्देवता वहतु सम्प्रति तामनाम् ॥
-० ५, पृ० २६६
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