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( ४ ) आनुपूर्वो से इसका विपर्श करते रहने की मंत्रणा दी है (अजस्रमनुपूर्वशः कृती विमृशन्, उत्त० पृ० ४१८ )।
काशी विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच० डी० के लिए स्वीकृत अपने शोध प्रबन्ध में मैंने यशस्ति तक को सांस्कृतिक सामग्री को वर्गीकृत रूप में पांच अध्यायों में निम्नप्रकार प्रस्तुत किया है
१. यशस्तिलक के परिशीलन की पृष्ठभूमि २. यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन ३. ललितकलायें और शिल्पविज्ञान ४. यशस्तिलककालीन भूगोल
५. यशस्तिलक की शब्द-सम्पत्ति प्रथम अध्याय में वह सामग्री दी गयी है जो यशस्तिलक के परिशीलन की पृष्ठभूमि के रूप में अनिवार्य है। इस अध्याय में तीन परिच्छेद हैं। परिच्छेद एक में यशस्तिलक का रचनाकाल, यशस्तिलक का साहित्यिक और सांस्कृतिक स्वरूप, यशस्तिलक पर अब तक हुये कार्य का लेखा-जोखा, सोमदेव का जीवन और साहित्य, सोमदेव और कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार तथा देवसंघ के विषय में संक्षेप में आवश्यक जानकारी दी गयी है।
यशस्तिलक का रचनाकाल स्वयं सोमदेव ने चैत्र शुक्ल त्रयोदशी शक संवत् ८८१ अर्थात् सन् ९५९ ई० दे दिया है। इससे यशस्तिलक के परिशीलन की वे सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं, जो समय की अनिश्चितता के कारण साधारणतः भारतीय वाङमय के अनुशीलन में उपस्थित होती हैं ।
साहित्यिक स्वरूप का विश्लेषण करते हुये मैंने लिखा है कि यशस्तिलक की रचना गद्य और पद्य में हुई है और साहित्य की इस सम्मिलित विधा को समीक्षकों ने चम्बू कहा है। स्वयं सोमदेव ने यशस्तिलक को महाकाव्य कहा है। वास्तव में यह अपने प्रकार की एक विशिष्ट कृति है और अपने ही प्रकार की एक स्वतंत्र विधा। एक उत्कृष्ट काव्य के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं ।
यशस्तिलक का सांस्कृतिक स्वरूप और भी विराट है। श्रीदेव ने यशस्तिलक-पंजिका में यशस्तिलक में आये सत्ताइस विषय गिनाये हैं। मैंने लिखा है कि यदि श्रीदेव के अनुसार ही यशस्तिलक के विषयों का वर्गीकरण किया जाये तो उनकी सूची में भूगोल आदि कई विषय और भी जोड़ने होंगे। इस सामग्री की सबसे बड़ी विशेषता इसकी पूर्णता और प्रामाणिकता है ।
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