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यशस्तिलक में सामग्री की जितनी विविधता और प्रचुरता है, उतनी ही उसकी विवेचन-शैली और शब्द-सम्पत्ति की दुरूहता भी। इसलिए जिस वैदुष्य और यत्न पूर्वक सोमदेव ने यशस्तिलक की रचना की, शायद ही उससे कम वैदुष्य और प्रयत्न उसके हार्द को समझने में लगे। संभवतया इसी दुरूहता के कारण यशस्तिलक साधारण पाटकों की पहुंच से दूर बना पाया; फिर भी दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध यशस्तिलक की हस्तलिखित पाण्डुलिपियां और बाद के साहित्यकारों पर यशस्तिलक का प्रभाव इसके प्रमाण हैं कि पिछली शताब्दियों में यशस्तिलक का संपूर्ण भारतवर्ष में मूल्यांकन हुआ, किन्तु वास्तव में लगभग सहस्र वर्षों में जितना प्रसार होना चाहिए था, उतना नहीं हुमा । और इसका बहुत बड़ा कारण इसको दुरूहता ही लगता है।
इस शताब्दी में पीटरसन, विन्टरनिरज और कीथ जैसे पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान यशस्तिलक की महत्ता और उपयोगिता की ओर आकर्षित हुआ है। भारतीय विद्वानों ने भी अपनी इस निधि की भोर अब दृष्टि डाली है ।
सम्पूर्ण यशस्तिलक श्रुतसागर की अपूर्ण संस्कृत टीका के साथ अभी तक केवल एक ही बार लगभग पैंसठ वर्ष पूर्व ( सन् १९०१, १९०३ ) प्रकाशित हुआ था जो अब अप्राप्य है। प्रो० कृष्णकान्त हन्दिकी का अध्ययन ग्रन्थ शोलापुर से सन् १९४९ में यशस्तिलक एण्ड इंडियन कल्चर' नाम से प्रकाशित हुआ था। इसमें प्रो० हन्दिकी ने विशेष रूप से यशरितलक की धार्मिक और दार्शनिक सामग्री का विद्वत्तापूर्ण अध्ययन और विश्लेषण प्ररतुत किया है। उन्होंने जिस-जिस विषय को लिया है, उसके विषय में निःसन्देह सोमदेव के प्रति पूरी निष्ठा, विद्वत्ता और श्रम पूर्वक पर्याप्त और प्रामाणिक जानकारी दी है। ___ यशस्तिलक के जो और प्रांशिक संस्करण निकले हैं तथा सोमदेव और यशस्तिलक पर जो फुटकर कार्य हुआ है, उस सबका लेखा जोखा लगाकर देखने पर भी मेरी समझ से यशस्तिलक के सही अध्ययन का यह श्रीगणेश मात्र है। श्रीगणेश मंगलमय हुमा यह परम शुभ एवं प्रानन्द का विषय है। वास्तव में प्रो० हन्दिकी जैसे अनेक विद्वान् जब यशस्तिलक के परिशीलन में प्रवृत्त होंगे तभी उसकी बहमूत्य सामग्री का ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखामों में उपयोग किया जा सकेगा। यशस्तिलक तो विविध प्रकार की बहुमूल्य सामग्री का अक्षय भंडार है। अध्येता ज्यों-ज्यों इसके तल में पैठता है, उसे और-पौर सामग्री उपलब्ध होती जाती है। इसी कारण स्वयं सोमदेव ने विद्वानों को निरन्तर
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