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है | प्रथम श्राश्वास कथावतार या कथा की पृष्ठभूमि के रूप में है । और प्रन्त के तीन प्राश्वासों में उपासकाध्ययन अर्थात् जैन गृहस्थ के प्राचार का विस्तृत वर्णन है । यशोधर की वास्तविक कथा बीच के चार श्राश्वासों में स्वयं यशोधर के मुँह से कहलायी गयी है । बाण की कादम्बरी की तरह कथा जहाँ से प्रारंभ होती है, उसकी परिसमाप्ति भी वहीं आकर होती है। महाराज शूद्रक की सभा में लाया गया वैशम्पायन शुक कादम्बरी की कथा कहना प्रारंभ करता है और कथावस्तु तीन जन्मों में लहरिया गति से घूमकर फिर यथास्थान पहुँच जाती है । सम्राट मारिदत्त द्वारा आयोजित महानवमी के अनुष्ठान में अपार जनसमूह के बीच बलि के लिए लाया गया परिव्रजित राजकुमार यशतिलक की कथा का प्रारंभ करता है और रथ के चक्र की तरह एक ही फेरे में आठ जन्मों की कहानी पूरी होकर अपने मूल सूत्र से फिर जुड़ जाती है ।
साहित्यिक दृष्टि से यशस्तिलक एक महनीय कृति है । यशस्तिलक के पूर्व लगभग एक सहस्र वर्षों में संस्कृत साहित्यरचना का जो क्रमिक विकास हुआ, उसका और अधिक परिष्कृत रूप यशस्तिलक में दृष्टिगोचर होता है ।
एक उत्कृष्ट काव्य के विशेष गुणों के अतिरिक्त यशस्तिलक में ऐसी प्रचुर सामग्री है, जो इसे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास तथा ज्ञान-विज्ञान की अनेक विधानों से जोड़ती है । पुरातत्त्व, इतिहास, कला और साहित्य के साथ तुलना करने पर इसकी प्रामाणिकता और उपयोगिता भी परिपुष्ट होती है । इस दृष्टि से भी यशस्तिलक कालिदास श्रौर बाग की परंपरा में महत्त्वपूर्ण नवीन कड़ी जोड़ता है । कालिदास और बाणभट्ट ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों में भारतीय संस्कृति के संग्रथन का जो कार्य प्रारंभ किया था, सोमदेव ने उसे और अधिक आगे बढ़ाया । एक बड़ी विशेषता यह भी है कि सोमदेव ने जिस विषय का स्पर्श भी किया उसके विषय में पर्याप्त जानकारी दी। इतनी जानकारी कि यदि उसका विस्तार से विश्लेषण किया जाये तो प्रत्येक विषय का एक लघुकाय स्वतंत्र ग्रन्थ बन सकता है । निःसंदेह सोमदेव को अपने इस संकल्प की पूर्ति में पूर्ण सफलता मिली कि उनका शास्त्र समस्त विषयों की व्युत्पत्ति का साधन बने । दशमी शताब्दी तक की अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन तथा उस युग का एक सम्पूर्णं चित्र यशस्तिलक में उतारा गया है । वास्तव में यशस्तिलक जैसे महनीय ग्रन्थ की रचना दशमी शती की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । स्वयं सोमदेव के शब्दों में यह एक महान् अभिधानकोश है (अभिधाननिधानेऽस्मिन्, पृ० ४१८ उत्त० ) ।
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