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सोमदेव दशमी शती के एक बहुप्रज्ञ विद्वान् थे। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा और प्रकाण्ड पाण्डित्य का पता उनके प्राप्त साहित्य तथा ऐतिहासिक तथ्यों से लगता है। वे एक उद्भट ताकिक, सरस साहित्यकार, कुशल राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध तत्त्वचिन्तक, सफल समाजशास्त्री, संमान्य जन-नेता और क्रान्तदृष्टा धर्माचार्य थे। उनकी निर्मल प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी थी। वे बिम्बग्राहिणी प्रतिभा के धनी थे। ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के तलस्पर्शी अध्ययन में उनकी दृढ़ निष्ठा थी। बड़े-बड़े राजतन्त्रों के निकट संपर्क से उनके ज्ञानकोष में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और विभिन्न संस्कृतियों की प्रभूत जानकारी संगृहीत हुई थी। जैन साधु की प्रवास-प्रवृत्ति के कारण सहज ही उन्हें लोकानुवीक्षण का सुयोग प्राप्त हुआ। विद्या-गोष्ठियों तथा वाग्युद्धों ने उनकी विद्वत्ता को और अधिक विस्तार और निखार दिया। धामिक क्रान्ति ने उन्हें संमान्य जन-नेता और सफल समाजशास्त्री बनाया। शास्त्रों के निरन्तर स्वाध्याय और विद्वान् मनीषियों के अहर्निश सान्निध्य से उनकी व्युत्पत्ति अजस्र रूप से वृद्धिंगत होती रही।
इस प्रकार सोमदेव की प्रज्ञा के अथाह सागर में ज्ञान को अनेक सरितायें व्युत्पत्ति की अपार जलराशि ला-लाकर उड़ेलती रहीं। और तब उनके प्रज्ञापुरुष ने एक ऐसे शास्त्र-सर्जन का शुभ संकल्प किया जो समस्त विषयों की व्युत्पत्ति का साधन हो (यद्व्युत्पत्यै सकलविषये, पृ० ५।८)। यशस्तिलक उनके इसी पुनीत संकल्प का मधुर फल है । जीवनभर तर्क की सूखी घास खानेवाली उनकी प्रज्ञा-सुरभि ने जो यह काव्य का मधुर दुग्ध दिया, उसे उन्होंने सुकृतिजनों के पुण्य का फल माना है (पृ० ६)।
इस विशिष्ट कृति के लिए उन्होंने महाराज यशोधर के लोकप्रिय चरित्र को पृष्ठभूमि के रूप में चुना। केवल गद्य या केवल पद्य इसके लिए उन्हें पर्याप्त नहीं लगा। इसलिए उन्होंने यशस्तिलक में दोनों का समावेश किया है। कहीं-कहीं कथनोपकथन भी आये हैं। पूरे ग्रन्थ में दो हजार तीन सौ ग्यारह पद्य तथा शेष भाग गद्य है। स्वयं सोमदेव ने गद्य और पद्य दोनों को मिलाकर माठ हजार श्लोकप्रमाण बताया है (एतामष्टसहस्रीम्, पृ० ४१८ उत्त०)। पूरा ग्रन्थ प्रौढ़ संस्कृत में रचा गया है और पाठ आश्वासों में विभक
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