SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन ३५. यौधेय सोमदेव ने यौधेय का विस्तार से वर्णन किया है। यह एक समृद्धिशाली जनपद था जिसे देख कर देवताओं का भी मन चल जाता था। यहां सभी प्रकार का गोधन- गाय, भैंस, घोड़े, ऊंट, बकरी, भेड़-पर्याप्त था। स्वर्ण की कमी न थी। पानी के लिए मात्र वर्षा पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था। यहां की जमीन काली थी। हल जोतने वाले बहुत थे । पानी सुलभ था। खेती के विशेषज्ञ पर्याप्त थे। खुब बाग-बगीचे थे। पेड़-पौधों की कमी न थी। सड़कें साफ-सुथरी थीं । गाँव इतने पास-पास बसे हुए थे कि एक गांव के मुर्गे उड़कर दूसरे गाँव में पहुँच जाते थे ( कुक्कुटसंपात्याग्रामाः )। सब परस्पर सौहार्द से रहते थे। ३६. लम्पाक यशस्तिलक में लम्पाक का मात्र एक बार उल्लेख हुआ है । ७९ इसकी पहचान वर्तमान लाधमन से की जाती है। युवानच्वांग ने इसे लानपो लिखा है। ३७. लाट लाट का अर्थ यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने भृगुकच्छ किया है। पालि में भरुकच्छ नाम आता है। वर्तमान भडौंच से इसकी पहचान को जाती है। नर्मदा के मुहाने पर यह एक अच्छा नगर तया जिला है। प्राचीन समय में पूर्वी गुजरात को लाट कहते थे। ३८. वनवासी बुहलर ने विक्रमांकदेव चरित के प्राक्कथन में लिखा है कि तुंगभद्रा और वरदा के मध्य में एक कोने में वनवासो स्थित था। यशस्तिलक के संस्कृत टोकाकार ने वनवासो का अर्थ गिरिसोपानगरादि किया है।८२ अर्थात् वनवासी में गिरिसोपा ( उत्तर कनारा जिले में स्थित गेरसोप्पा ) तथा अन्य नगर थे । महावंश ( १२॥३१ ) में भी वनवास का नाम आया है। गेगर ने लिखा है कि उत्तर कनारा जिले में वनवासी नाम का एक कस्वा आज भी वर्तमान है। ७८. पृ० १२ से २५ ७६. लम्पाकपुरपुर ध्रिकाधरमाधुर्यपश्यतो हरे । -- पृ० ५७४ ८०. वाटरस् भान युवानच्चांग, भाग १ पृ० १८१ ८१. लाटीनां भृगुकच्छदेशोद्भवानां स्त्रीणाम् । -- पृ० १८०, सं० टी० ८२. गिरिसोपानगरादिस्त्रीणाम्। -- पृ० १६६ ८३. इम्पीरियल गजट ऑव इंडिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy