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ललित कलाएं और शिल्प-विज्ञान
हस्ते स्पृष्टा नखान्तैः कुचकलशतटे चूचुकप्रक्रमेण, वक्त्रे नेत्रान्तराभ्यां शिरसि कुवलयेनावतंसापितेन । श्रोण्यां कांचीगुणाप्रैस्त्रिवलिषु च पुनर्नाभिरन्ध्रेण धोरा, यन्त्रस्त्री यत्र चित्रं विकिरति शिशिराश्चन्दनस्यन्दधाराः ॥
-सं० पू० ५३१, ५३२ भोज ने भी इस वर्णन के बिलकुल तद्रूप ही यन्त्रस्त्री के निर्माण किये जाने का वर्णन किया है।
भोज के करीब एक सौ वर्ष बाद हेमचन्द्र ने भी ठीक इसी तरह के यंत्रों का वर्णन किया है। कुमारपाल के यन्त्रधारागृह में शालभंजिकाओं के विभिन्न अंगों से झरता हआ पानी दिखाया गया था। सोमदेव के वर्णन के समान इन शालभंजिकाओं के भी दोनों कानों से, मुंह से, दोनों हाथों से, दोनों चरणों से, दोनों कुचों से तथा उदर से, इस तरह दस अंगों से पानी निकलता था।' सोमदेव ने दस स्थानों में पैरों को गणना नहीं की उसके बदले दोनों आँखों की गणना को है । हेमचन्द्र ने आंखों की गणना नहीं की, बल्कि पैरों की गणना की है।
एक ही यन्त्र के दस स्थानों से झरता हुआ पानी अत्यन्त मनोज्ञ दृश्य प्रस्तुत करता होगा । सोमदेव ने तो उसकी यान्त्रिकता की विशेषता बता कर उस शिल्पी की और भी ध्यान खींचा है जिसने इस उत्कृष्ट शिल्प की रचना की थी। यन्त्रपयंक ___ अमृतमति महादेवी के भवन में आकर यशोधर जिस पलंग पर सोया उसका यान्त्रिक विधान इतना सुन्दर था कि मन्दाकिनी प्रवाह की तरह उच्छ्वास मात्र से तरलित हो उठता था। भोजदेव ने ऐसी शय्या का विधान बताया है जो निःश्वास के साथ ऊपर उठ जाये और आश्वास के साथ नीचे आ जाये ।33 ३०. स्तनयोयुगेन सृजती जलधारे तत्र कापि कार्या स्त्री।
श्रानन्दाश्रुलवानिव सलिलकणान् पक्ष्मभिः काचित् ॥ नाभिहदनदिकामिव विनिर्गतां कापि विभ्रतीं धाराम् । काप्यंगुलीनखांशुभिरिव योषित् सिंचती कार्या ॥
-समरांगणसूत्रधार, ३१३१३६, १३७ ३१. पंचालिशाहि मुक्कं कन्नेसन्तो जलं मुहासुन्तो।
हत्थेहितो चरणाहिंतो वच्छाहि उअरेहि ॥ -कुमारपालचरित ४/२८ ३२. मन्दाकिनिप्रवाहमुच्छवसितमात्रेणापि तरलतरान्तराल विहितसुखसंवेशम् यन्त्र.
सुन्दरम् । -उत्तगध, ३१ ३३. निःश्वासेन वियद्याति श्वासेनायाति मेदिनीम् । -समरांगणसूत्रधार ३१६८
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