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ललित कलाएं और शिल्प-विज्ञान
२५१ केवल सोमदेव के उल्लेखों के आधार पर यद्यपि यह कहना कठिन है कि दशमी शती में उपर्युक्त सभी प्रकार के मन्दिर विद्यमान थे, तो भी इतनी जानकारी तो मिलती ही है कि प्राचीन काल में इन सभी के मंदिर निर्माण की परम्परा रही होगी।
इसी प्रसंग में प्रासाद या भवन के लिए आये पुर, आगार, भवन, धाम, आवास, पस्त्य, उद्वसित, धिष्णय, शरण, सौध, मन्दिर, गेह और निवास शब्द भो महत्त्वपूर्ण हैं । भवन या मन्दिर के लिए इतने शब्दों का प्रयोग अन्यत्र एक साथ नहीं मिलता।
त्रिभुवनतिलक या इसी प्रकार के नामों को परम्परा भी प्राचीन है । भोज ने चौदह प्रकार के भवनों का उल्लेख किया है, उनमें एक भुवनतिलक भी है।
प्रास्थानमण्डप
सोमदेव ने यशोधर के लक्ष्मीनिवासतामरस नामक आस्थानमण्डप का विस्तृत वर्णन किया है । भोज ने भी (अ० ३०) लक्ष्मीविलास नामक भवन का उल्लेख किया है। गुजरात के बड़ोदा आदि स्थानों में विलास नामान्तक भवनों की परम्परा अभी तक प्रचलित है ।
आस्थानमण्डप राजभवन का वह भाग कहलाता था, जिसमें बैठ कर राजा राज्य कार्य देखते थे।' इसे मुगलकाल में दरबारे आम कहा जाता था। __आस्थानमण्डप राजा के निवासस्थान से पृथक होता था। प्रातःकालीन दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो यशोधर ने आस्थानमंडप की ओर प्रयाण किया । सबसे पहले उन्हें गजशाला या हाथीखाना मिला। उसमें बड़े-बड़े दिग्गज हाथी गोलाकार बंधे थे। उनके अरुण माणिक्यों से मढ़े गजदन्तों में पड़ रही परछाई से उनके कुंभस्थलों की सिन्दूर शोभा द्विगुणित हो रही थी। और गण्डस्थलों से झरते मद के सौरभ से भ्रमरियों के झुण्ड के झुण्ड खिचे आते थे जिनसे आकाश नीला-नीला हो रहा था ( पृ० ३६७)।
गजशाला के बाद यशोधर ने अश्वशाला या घुड़सार देखो। घुड़सार में यहाँ-वहाँ कई पंक्तियों में घोड़े बँधे थे। उनको नेत्र, चीन, चित्रपटी, पटोल, रल्लिका आदि वस्त्रों को जीने पहनायो गयी थीं। घास के हर कौर के साथ उनके मुख-प्रकीर्णक हिल-हिल कर उनकी आंखों के कोने चूम रहे थे। अपने
३१. सर्वेषामाश्रमिणामितरव्यवहारविश्रामिणां च कार्याण्यपश्यम्। -पृ० ३७३
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