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२५.
यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
शुन्य था । पुण्यजनावास होकर भी अराक्षसभाव था। प्रचेतःपस्त्य ( वरुणगृह ) .. होकर भी अजड़ाशय था । वातोदवसित ( वायुभवन ) होकर भी अचपलनायक
(स्थिरस्वामी ) था। धनदधिष्णय ( कुबेरगृह ) होकर भी अस्थाणुपरिणत (ठूठरहित ) था। शंभूशरण होकर भी अव्यालावलीढ़ था। ब्रघ्नसोध होकर भी अनेकरथ था। चन्द्रमन्दिर होकर भी अमृहुप्रताप था। हरिगेह होकर भी अहिरण्यकशिपुनाश था। नागेशनिवास होकर भी अद्विजिह्वपरिजन (दोगलारहित ) था, वनदेवता निवास होकर भी अकुरंग था। ___ कहीं धर्मराजनगर की तरह सूक्ष्मतत्त्ववेत्ता विद्वान् सम्पूर्ण संसार के व्यवहार का विचार कर रहे थे। कहीं पर ब्रह्मालय की तरह द्विजन्मा (ब्राह्मण) लोग निगमार्थ ( नीति-शास्त्र ) की विवेचना कर रहे थे। कहीं पर तण्डुभवन की तरह अभिनेता इतिहास का अभिनय कर रहे थे। कहीं पर समवशरण की तरह प्रमुख विद्वान् तत्त्वोपदेश कर रहे थे। कहीं सूर्य के रथ की तरह घोड़ों को सिखाने के लिए घसीटा जा रहा था। कहीं अंगराज भवन की तरह सारंग ( हाथी ) शिक्षित किये जा रहे थे। कुलवृद्धाएं दासियों तथा नौकर-चाकरों को नाना प्रकार के निर्देश दे रही थीं। ऊँचे तमंगों के झरोखों से स्त्रियां झांक रही थीं। कीर्तिसाहार नामक वैतालिक इस त्रिभुवनतिलक नामक भवन का वर्णन इस प्रकार करता है
यह प्रासाद शभ्रध्वजा-श्रेणियों द्वारा कहीं हवा से हिल रही हिलोरों वाली गंगा की तरह लगता है, तो कहीं स्वर्णकलशों की अरुण किरणों के कारण सुमेरु को छाया की तरह। कहीं अतिश्वेत भित्तियों के कारण समुद्र की शोभा धारण करता है तो कहीं गगनचुम्बी शिखरों के कारण हिमालय की सदृशता धारण करता है। यह भवन लक्ष्मी का क्रीड़ास्थल, साम्राज्य का महान् प्रतीक, कीर्ति का उत्पत्तिगृह, क्षितिवधू का विश्रामधाम, लक्ष्मी का विलासदर्पण, राज्य की अधिष्ठात्री देवी का कुलगृह तथा वाग्देवता का क्रीड़ास्थान प्रतीत होता है (पृ० ३५२-५३ )।
त्रिभुवनतिलक प्रासाद के वर्णन में सोमदेव ने जो अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी है, उनमें पुरंदरागार, चित्रभानुभवन, धर्मधाम, पुण्यजनावास, प्रचेतःपस्त्य, वातोदवसित, धनदधिष्णय, बध्नसोध, चन्द्रमन्दिर, हरिगेह, नागेशनिवास, तण्डुभवन इत्यादि की जानकारी विशेष महत्त्व की है । सूर्य मन्दिर, अग्निमन्दिर आदि बनाने को परम्परा प्राचोन काल से थी। इनके भग्नावशेष या उल्लेख आज भी मिलते हैं।
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