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ललित कलाएं और शिल्प-विज्ञान
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शिल्प में अन्यत्र इस शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आता । सम्भवतया छज्जे के नीचे लगी काठ की धरन विटंक कहलाती थी ।
चैत्यालयों के अतिरिक्त राजपुर में श्रीमानों के गगनचुम्बी ( अभ्रंलिहै: ) प्रासाद थे । मणिजड़ित उत्तुंगतोरण लगाये गये थे । २४ तोरणों से निकलती किरणों से देवताओं के भवन मानो पीले हो रहे थे । २५
त्रिभुवनतिलक प्रासाद
सोमदेव ने लिखा है कि सिप्रा के तट पर राज्याभिषेक के बाद यशोधर ने लौट कर त्रिभुवनतिलक नामक प्रासाद में प्रवेश किया । त्रिभुवनतिलक प्रासाद श्वेत पाषाण या संगमर्मर ( सुधोपलासार, ३४२ ) का बनाया गया था । शिखरों पर स्वर्णकलश ( कांचनकलश, ३४३ ) लगाये गये थे । पूरे प्रासाद पर चूने से सफेदी की गयी थी । २६ रत्नमय खम्भों वाले ऊँचे-ऊंचे तोरणों के कारण राजभवन कुबेरपुरी की तरह लगता था ( पृ० ३४४ ) |
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यहाँ सोमदेव ने तोरण को 'उत्तु ंगतरंगतोरण' कहा है । तोरणों के रत्नमय खम्भों (रत्नमयस्तंभ, ३४४ पृ० ) पर मुक्ताफल की लम्बी-लम्बी मालाएं लटकती हुई दिखाई गयी थीं । २७ बड़े-बड़े प्रवालमणि ( प्रबलप्रवाल, वही ) तथा दिव्य दुकूल भी अंकित थे। ऊपर लगी ध्वजाओं में मरकतमणि लगे हुए थे, जिनसे नीली कान्ति निकल रही थी । एक ओर महामण्डलेश्वर राजाओं के द्वारा उपहार में आये श्रेष्ठ हाथियों के मदजल से भूमि पर छिड़काव हो रहा था । २९ दूसरी ओर उपहार में प्राप्त उत्तम घोड़े मुँह से फेन उगलते श्वेत कमल बनाते-से बंधे थे । दूतों के द्वारा लाये गये उपहार एक ओर रखे थे ( वही ३४४ ) | राजभवन प्रजापतिपुर सदृश होने पर भी दुर्वासा ( मलिनवस्त्रधारी ) रहित था । इन्द्रभवन सदृश होने पर भी अपारिजात ( शत्रुसमूहरहित ) था ।
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गृह सदृश होने पर भी अधूमश्यामल ( मणिमाणिक्यों की प्रभायुक्त ) था । धर्मधाम ( यमराज का घर ) होकर भी अदुरीहितव्यवहार ( पापव्यवहार )
२४. उत्तु ंगतोरणमणि । - पृ० २१
२५. पिंजरितामरभवनैः । वही
२६. सुधादीधितिप्रबन्धैः धवलिताखिल दिग्वलयम् । - ३४४
२७. अवलंबितमुक्ताप्रलंब । - ३४४ पृ०
२८. उपरितनशोत्तभितध्वजप्रान्तप्रोतमरकतमणि । वही
२६. महामंडलेश्वरैरनवरतमुपायनीकृत करीन्द्र मदलक्ष्मीजनितसंमार्जनम् । - वही ३०. उपाहूताजानेय हयाननोद्गी डिण्डोर पिण्डपुण्डरीकविहितोपहारम् । -
- वही
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