________________
यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
चैत्यालयों के इस वर्णन में सोमदेव ने प्राचीन वास्तुशिल्प के कई पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया है । जैसे- अटनि, केतुकाण्डचित्र, ध्वजस्तम्भस्तम्भिका, प्रणाल, आमलासारकलश, किंपिरि, स्तूप, विटंक |
प्राचीन वास्तुशिल्प में अटनि अर्थात् बाहरी छज्जे पर सिंह रचना का विशेष रिवाज था । इसे झम्पासिंह कहते थे । केतुकाण्ड अर्थात् ध्वजा दण्डों पर चित्र बनाये जाते थे । ध्वजा देवमन्दिर का एक आवश्यक अंग था । ठक्कुर फेरु ने वास्तुसार ( ३/३५ ) में लिखा है कि देवमन्दिर के अच्छे शिखर पर ध्वजा न हो तो उस मन्दिर में असुरों का निवास होता है । प्रासाद के विस्तार के अनुसार ध्वजा-दण्ड बनाया जाता था। एक हाथ के विस्तार वाले प्रासाद में पौन अंगुल मोटा ध्वजादण्ड और उसके आगे क्रमशः आधा-आधा अंगुल बढ़ाना चाहिए ( ३।३४ वही ) । दण्ड की मर्कटी ( पाटली ) के मुख भाग में दो अर्द्धचन्द्र का आकार बनाने तथा दो तरफ घंटी लगाने का विधान बताया गया है । २१ ध्वजस्तम्भों के आधार के लिए स्तम्भिकाएं बनायी जाती थीं। उनमें मणिमुकुर लगाने की प्रथा थी । स्तम्भिकाओं की रचना घण्टोदय के अनुसार की जाती थी । २२ चैत्यालय में देवमूर्ति के प्रक्षालन का जल बाहर निकालने के लिए प्रणाल की रचना की जाती थी । देवमूर्ति अथवा प्रासाद का मुख जिस दिशा में हो तदनुसार प्रणाल बनाया जाता था । प्रासादमण्डन तथा अपराजित पृच्छा में इसका ब्योरेवार वर्णन किया गया है । शिखर के ऊपर और कलश के नीचे आमलासारकलश की रचना की जाती थी । शिखर के अनुपात से आमलासार बनाया जाता था । प्रासादमंडन में लिखा है कि दोनों रथिकाओं के मध्य भाग जितनी आमलासारकलश की गोलाई करना चाहिए, आमलासार के विस्तार से आधी ऊँचाई, ऊंचाई का चार भाग करके पौन भाग का गला, सवा भाग का आमलासार, एक भाग की चन्द्रिका और एक भाग की आमलसारिका बनाना चाहिए (४.३२, ३३) । आमलासार के ऊपर कांचन कलश स्थापित किया जाता था । कलश की स्थापना मांगलिक मानी जाती थी ( प्रासादमंडन ४/३६ ) । मंडन
ज्येष्ट, कनीय और अभ्युदय के भेद से कलश के तीन प्रकार बताये हैं । सोमदेव ने चैत्यालयों के मुड़ेर को किंपिरि कहा है । सूर्यकान्त के बने किंपिरि सूर्य की रोशनी में मणिदीपों की तरह चमकते थे । चैत्यालय के समीप ही स्तूप बनाये जाते थे । विटंक को श्रुतसागर ने बाहर निकला हुआ काष्ठ कहा है । वास्तु
२३
२४८
२१. अपराजित पृच्छा, सूत्र १४४, प्रासादमंडन ४।४५ २२. घण्टोदयप्रमाणेन स्तंभिकोदयः कारयेत् । - वही २३. वहिर्निर्गतानि काष्ठानि । - पृ० २०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org