SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ललित कलाएँ और शिल्प - विज्ञान २४७ कपोलों का स्वेदजल चैत्यालयों के शिखरों पर लगी पताकाओं को हवा से सूख जाता था । " १० ११ चंदोवा-सा बन रहा था । १२ 13 १५ १६ ध्वज - दण्डों में चित्र बनाये जाते थे । सोमदेव ने लिखा है कि सटकर चलती सुर-सुन्दरियों के चंचल हाथों से ध्वज- दण्डों के चित्र मिट जाते थे । ध्वजस्तम्भ की स्तम्भिकाओं में मणिमुकुर लगे थे । शिखरों पर रत्नजटित कांचनकलश लगाये गये थे, जिनसे निकलनेवाली कान्ति से आकाश-लक्ष्मी का पानी निकलने के लिए चन्द्रकान्त के प्रणाल बनाये गये थे । four ( कंगूरे ) सूर्यकान्त के बने थे, जो सूर्य की रोशनी में दीपकों की तरह चमकते थे । उज्ज्वल आमलासार पर कलहंस श्रेणी बनायी गयी थी । १४ उपरितल पर घूमते हुए मयूर- बालक दिखाये गये थे । सामने ही स्तूप बनाया गया था। विटंकों पर शुक शावक बैठे हरित अरुणमणि का भ्रम पैदा कर रहे थे । चाप पक्षियों के पंखों से मेंचक रचना ढंक गयी थी ।" पालिध्वजाओं में क्षुद्र घंटिकाएँ लगायो गयी थीं ।' चूने से ऐसी सफेदी की गयी थी मानो आकाशगंगा का प्रवाह उमड़ आया हो । चैत्यालय ऐसे लगते थे मानो आकाशवृक्ष के फूलों के गुच्छे हों, श्वेतद्वीपसृष्टि शिखण्डमण्डन का पुण्डरीक समूह हो, तीनों लोकों के क्षेत्र हों, आकाश- समुद्र की फेनराशि हो, शंकर का क्रीड़ाशैल हों, ऐरावत के कलभ हों। चारों ओर से कान्ति द्वारा मानो भक्तों के स्वर्गारोहण के लिए सोपान परम्परा रच रहे हों, संसार सागर से तिरने के लिए जहाज हों ( पृ० २०, २१ ) । १७ १९ 。 हों, आकाशदेवता के भव्य जनों के पुण्योपार्जन अट्टहास हो, स्फटिक के पड़ रही माणिक्यों की ८. वही पृ० १८ 1 ६. अतिसविधसंचरत्सुरसुन्दरीकरचापल विलुप्तकेतुकाण्डचित्रैः । - वही १०. अनेकध्वजस्तम्भस्तम्भिकोत्तंभितमणिमुकुर । - वही ११. अप्रत्नरत्नचयनिचितकां चनकलश | १२. चन्द्रकान्तमयप्रणाल । - वही १३. दिनकृतकान्तकिंपिरि । वही १६. उपान्तस्तूप । • वही १४. श्रमलका मलासार विलसत्कलहंस श्रेणी | १५. उपरितनतल चलत्प्रचला कि बालकः । - वही . वही — - Jain Education International पृ० १० १७. १८. पृ० २० १६. किंकिणीजालवाचालपालिध्वज । - वही २०. अनवधिसुधाप्रधाबद्धामसंदिग्धस्वधु नीप्रवा है । - वही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy