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परिच्छेद तीन
वास्तु-शिल्प यशस्तिलक में वास्तु-शिल्प सम्बन्धी विविध प्रकार की सामग्री के उल्लेख मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के शिखरयुक्त चैत्यालय ( देवमन्दिर ), गगनचुंबी महाभागभवन, त्रिभुवनतिलक नामक राजप्रासाद, लक्ष्मीविलासतामरस नामक आस्थानमण्डप, श्रीसरस्वतीविलासकमलाकर नामक राजमन्दिर, दिग्वलयविलोकनविलास नामक क्रीड़ाप्रासाद, करिविनोदविलोकनदोहद नामक प्रधावधरणिप्रासाद, मनसिजविलासहंसनिवासतामरस नामक वासभवन, गृहदीधिका, प्रमदवन, यन्त्रधारागृह आदि का विस्तृत वर्णन विभिन्न प्रसंगों में आया है । सम्पूर्ण सामग्री का विवेचन इस प्रकार है - चैत्यालय
देवमन्दिर के लिए यशस्तिलक में चैत्यालय शब्द का प्रयोग हुआ है। सोमदेव ने लिखा है कि राजपुरनगर विविध प्रकार के शिखरयुक्त चैत्यालयों से सुशोभित था। शिखर क्या थे मानो निर्माणकला के प्रतीक थे। शिखरों से विशेष कान्ति निकलती थी । सोमदेव ने इसे देवकुमारों को निरवलम्ब आकाश से उतरने के लिए अवतरण मार्ग कहा है। शिखर ऐसे लगते थे मानो शिशिर. गिरि कैलाश का उपहास कर रहे हों। शिखर की अटनि पर सिंह निर्माण किया गया था। सोमदेव ने लिखा है कि अटनि पर बने सिंहों को देख कर चन्द्रमृग चकित रह जाते थे। शिखरों की ऊंचाई की कल्पना सोमदेव के इस कथन से को जा सकती है कि सूर्य के रथ का घोड़ा थक कर मानो क्षण भर विश्राम के लिए शिखरों पर ठिठक रहता था। देवयानों को चक्कर काट कर ले जाना पड़ता था। निरन्तर विहार करते हुए विद्याधरों की कामिनियों के
१. विचित्रकोटिभिः कूटैरुपशोभितम् । - पृ० २१ पू० २. घटनाश्रियां श्रियमुद्वहद्भिः । - वही ३. देवकुमारकाणामनालम्बे नभस्यवतरणमार्गचिह्नोचितरुचिभिः । - पृ० १७ ४. उपहसितशिशिरगिरिहराचलशिखरैः । - वही ५. अनितटनिविष्टविकटसटोत्कटकर टिरिपुसमीपसंचार चकितचन्द्रमृग। - वही ६. अरुणरथतुरगचरणाक्षुण्णक्षणमात्र विश्रमैः। - वही ७. अंबरचरचमूविमानगतिविक्रमविधायिभिः । - वहो
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