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________________ ललित कलाएँ और शिल्प-विज्ञान शालोऽथ वेदिरथ वेदियोऽपि शालवेदी शाल इह वेदिरथोऽपि शालः । वेदी च भाति सदसि क्रमतः यदीये, तस्मै नमस्त्रिभुवनविभवे जिनाय || व्यक्त करता है । जैन उपरान्त इन्द्र कुबेर को स्पष्ट हो यह सन्दर्भ तीर्थंकर के समवशरण को शास्त्रों के अनुसार तीर्थंकर को केवलज्ञान होने के आज्ञा देकर एक विराट सभामण्डप का निर्माण कराता है, जिसमें तीर्थंकर का उपदेश होता है । इसी सभामंडप को समवशरण कहा जाता है। जैसा कि श्रुतसागर ने लिखा है इसकी रचना गोलाकार होती है और शाल और वेदी, शाल और वेदी के क्रम से विन्यास किया जाता है । प्राचीन जैन चित्रों में समवशरण का सुन्दर अंकन मिलता है । सोमदेव द्वारा उल्लिखित प्रजापति प्रोक्त संभवतया यह ब्राह्मीय चित्रकर्म शिलशास्त्र था, को १५४३१ संख्या वाली पाण्डुलिपि में उपलब्ध है । अन्य उल्लेख Jain Education International २४५ चित्रकर्म उपलब्ध नहीं होता । जिसका सार तंजोर ग्रन्थागार चित्रकला के अन्य उल्लेखों में सोमदेव ने एक स्थान पर खम्भों पर बने चित्रों का उल्लेख किया है ( केतुकाण्डचित्रे, १८०४ सं० पू० ) । एक अन्य स्थान पर भित्तियों पर बने हुए सिंहों का उल्लेख किया है ( चित्रापितादिपैरिव, ९०।६ सं० पू० ) । झरोखों से झाँकती हुई कामिनियों का वर्णन भी एक स्थान पर आया है ( गवाममार्गेषु विलासिनीनां विलोचनैर्मोक्तिबिबकान्तैः ३४२।३-६ सं० पू० ) । संस्कृत साहित्य तथा कला एवं शिल्प में अन्यत्र भी ऐसे उल्लेख आये हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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