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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
व्यक्ति-चित्र
१. बाहुबलि (विजयसेनैव बाहुबलिविदिता, २४६।२० उत्त० )
जैन परम्परा में बाहुबलि एक महान तपस्वी और मोक्षगामी महापुरुष माने गये हैं। ये आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र तथा चक्रवर्ती भरत के भाई थे । भरत के चक्रवर्तित्व प्राप्ति के बाद ये संन्यस्त हो गये और लगातार बारह वर्ष तक तप करते रहे। सुडौल, सौम्य और विशाल शरीर के धारक इस तपस्वी ने ऐसी समाधि लगाई कि वर्षा, जाड़ा और गर्मी किसी से भी विचलित नहीं हुआ। चारों ओर पेड़ पौधे और लताएं उग आयों और शरीर का सहारा पाकर कंधों तक चढ़ गयौं । बाहुबलि का यही चित्र शिल्प और ललित कला में कलाकार ने उकोरा है । दक्षिण भारत में अनेक मनोज मूर्तियाँ बाहुबलि के उक्त स्वरूप की अभी भी विद्यमान हैं। संसार को आश्चर्यचकित करने वाली श्रवणबेलगोल ( मैसूर ) की मूर्ति इसी महापुरुष को है जो उन्मुक्त आकाश में निरालम्ब खड़ी चराचर विश्व को शान्ति का अमर सन्देश दे रही है ।
२. प्रद्युम्न ( प्रकटरति जीवितेशा, २४६।२२ उत्त० )
प्रद्युम्न सौन्दर्य और कान्ति के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक माने जाते हैं । इसीलिए इन्हें रतिजीवितेश अर्थात् कामदेव कहा गया है। प्रद्युम्न का पूरा चित्र दीवार पर उकीरा गया था।
३. सुपार्श्व ( रूपगुणनिका इव सुपार्श्वगता, २४६।२० उत्त० ) - सोमदेव ने लिखा है कि यह मन्दिर रूपगुणनिका की तरह सुपार्श्वगत था। रूपगुणनिका और पार्श्वगत दोनों ही चित्रकला के पारिभाषिक शब्द हैं । चित्र उकीरने के लिए व्यक्ति का अध्ययन रूपगुणनिका कहलाता है। इसी तरह पार्श्व. गत चित्र के नव अंगों में से एक है। विष्णुधर्मोत्तर ( ३९, १ भाग ३ ) में इन नव अंगों का विवरण आया है ( नव स्थानानि रूपाणाम्, वही )।
सोमदेव ने जिस मन्दिर का उल्लेख किया है उसमें सम्भवतया सुपार्श्वनाथ की मूर्ति थी जिसे कलाकार की दृष्टि से देखने पर केवल पार्श्वगत अंग ही दिखाई देता था। सुपाश्वनाथ जैन परम्परा में सातवें तीर्थंकर माने गये हैं ।
४. अशोक तथा रोहिणी ( अशोकरोहणीपेशला, २४६।२१ उत्त० )
जैन परम्परा में अशोक राजा तथा रोहणी रानी की कथा और चित्रों को परम्परा पुरानी है। प्राचीन पाण्डुलिपियों तक में इनके चित्र मिलते हैं ( डॉ० मोतीचन्द्र - जैन मिनिएचर पेटिंग्ज, चित्र १७ )।
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