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परिच्छेद दो
चित्र-कला
यशस्तिलक में चित्रकला के उल्लेख भी कम नहीं हैं और जितने हैं वे कला को दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । भित्ति-चित्र
पांचवें उच्छवास में एक जैन मन्दिर का अतीव रोचक वर्णन है। उसी प्रसंग में सोमदेव ने अनेक भित्ति चित्रों का उल्लेख किया है।'
कला की दृष्टि से भित्ति-चित्रों को अपनी विशेषता है । भित्ति चित्र बनाने के लिए भीतर का उपलेप ( प्लास्टर ) कैसा होना चाहिए और उसे कैसे बनाना चाहिए, उस पर लिखाई करने के लिए जमीन कैसे तैयार करनी चाहिए, इत्यादि बातों का सविस्तर वर्णन अभिलषितार्थचिन्तामणि तथा मानसोल्लास में आया है। जमीन तथा रंगों में पकड़ के लिए सरेस दिया जाता था, जिसे वज्रलेप कहते थे। उपलेप पर जमीन तैयार करके भावुक एवं सूक्ष्म रेखा-विशारद चित्रकार चिन्तन द्वारा अर्थात् अन्तर्दष्टि से देखकर उस पर अनेक भाव तया रस वाले चित्र अच्छी रेखाओं और समुचित रंगों से बनाता था । आलेखन के लिए वह कलम के अतिरिक्त पेंसिल की-सी किसी अन्य चीज का भी प्रयोग करता था जिसका नाम वर्तिका था। पहले इसी से आकार टोपता था फिर गेरु से सच्ची टिपाई करता था; तब समुचित रंग भरता था। ऊंचाई दिखाने के लिए उजाला (लाइट) तथा निचाई के लिए छाया ( शेड ) देता था। तैयार चित्र के हाशिए की पट्टी काले रंग से करता था और वस्त्र, आभरण, चेहरे आदि को लिखाई अलक्तक से करता था।
सोमदेव ने जिन भित्ति चित्रों का उल्लेख किया है वे दो प्रकार के हैं१-व्यक्ति-चित्र, २-प्रतीक चित्र । व्यक्ति-चित्रों में बाहुबलि, प्रद्युम्न, सुपाव, अशोकरोहणी तथा यक्षमिथुन का उल्लेख है। प्रतीक-चित्रों में तीर्थंकरों को माता के द्वारा देखे जाने वाले सोलह स्वप्नों का विवरण है ।
१. सुकविकृतिरिव चित्रबहुला ।-२४६।२२ उत्त.
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