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ललित कलाएँ और शिल्प-विज्ञान
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नाट्य प्रधान रूप से रस के आश्रित रहता है । सामाजिक को रसानुभूति कराना ही नाट्य का चरम लक्ष्य है। श्रृंगार, वीर या करुण रस की परिपुष्टि नायक की प्रकृति के अनुसार, नाटक में की जाती है ।
नृत्य
भावों पर आश्रित अनुकृति को नृत्य कहते हैं ( अन्यद्भावाश्रयं नृत्यम्, दश० १।८ ) । नाट्य प्रधान रूप से रस के आश्रित होता है, किन्तु नृत्य प्रधान रूप से भावाश्रित होता है । धनंजय के टीकाकार धनिक ने इन दोनों के भेद को और भी अधिक स्पष्ट किया है जो इस प्रकार है :
१. नाटय रसाश्रित है, नृत्य भावाश्रित, इसलिए इन दोनों में विषय भेद है ।
२. नाट्य में आंगिक आदि चारों प्रकार का अभिनय रहता है, जबकि नृत्य में केवल आंगिक अभिनय की प्रधानता है ।
३. नाट्य दृश्य और श्रव्य दोनों होता है, जबकि नृत्य में श्रव्य कुछ भी नहीं होता । इसमें कथनोपकथन का अभाव रहता है ।
४. नाट्य-कर्ता नट कहलाता है, नृत्य कर्ता नर्तक ।
५. नाट्य 'नट् अवस्पन्दने' धातु से बना है और नृत्य 'नृत् गात्रविक्षेपे' धातु से बना है |
एक व्यर्थक पद्य में सोमदेव ने नृत्य की मुद्रा का पूरा चित्र खींचा है । ७४ तीनों अर्थ इस प्रकार हैं
१. नृत्य के पक्ष में ।
२. प्रमदारति अर्थात् स्त्रीसम्भोग के पक्ष में ।
३. सभामण्डप या दरबार के पक्ष में ।
नृत्य के पक्ष में
जिसमें कुन्तल - चँवर कम्पित हो रहे हैं, कांची का कल-कल शब्द हो रहा है, कटाक्ष पात द्वारा भाव निवेदन किया गया है, ऊरु और चरणों के यथावसर
७३. वही, ११६
७४. चंचत्कुन्तलचामरं कलरणत्कांचीलयाडम्बरम्,
भ्रूभं गार्पित भाव सूक्ष्म चर णन्यासासनानन्दितम् ।
खेलत्पाणिपताकमीक्षणपथा नीतांगारोत्सवम्,
नृत्यं च प्रमदारतं च नृपतिस्थानं च ते स्तान् मुद्दे ॥ - श्र०१, श्लोक १७४
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