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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन और संस्कृति को अधिष्ठात्री यह देवी वैदिक, जैन तथा बौद्ध तीनों धर्मों में समान रूप से पूज्य रही है ( स्मिय-जैन स्तूप आफ मथुरा, पृ० ३६ )। ऋग्वेद से लेकर बाद के अधिकांश साहित्य में सरस्वती का वर्णन मिलता है ( मेकडानल-वैदिक माइथोलोजी, पृ० ८७ ) । नृत्य के भेद
यशस्तिलक में नृत्य के लिए कई शब्द आये हैं। जैसे नृत्य ( ३२०), नृत्त ( ३७७।१ ), नाटय ( ३२० ), लास्थ ( ३५५ ), ताण्डव ( ३२० ) और विधि (२४६ उ०) । कतिपय अन्य शब्दों और वर्णनों से भी नृत्य-विधान का परिचय मिलता है।
नृत्य, नृत्त और नाटय शब्द देखने में समानार्थक से लगते हैं, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। धनंजय ने इन तीनों के भेद को स्पष्ट किया है,७° जिसे आगे दिखाएंगे। लास्य और ताण्डव नृत्य के भेद हैं। विधि का अर्थ यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने नृत्य किया है। यह नाटयशास्त्र का कोई प्राचीन पारिभाषिक शब्द प्रतीत होता है, जिसका अब ठीक अर्थ नहीं लगता। सहस्रकूटचैत्यालय को भरत पदवी की तरह विधि, लय और नाटय से युक्त कहा गया है ( भरतपदवीव बिघिलयनाटचाडम्बरः, २४६।२३ उत्त० )। नाट्य ___ काव्यों में वर्णित धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त प्रकृति के नायकों तथा उस-उस प्रकृति को नायिकाओं एवं अन्य पात्रों का आंगिक, वाचिक, आहार्य तथा सात्त्विक अभिनयों द्वारा अवस्थानुकरण करना नाटय कहलाता है।१ अवस्थानुकरण से तात्पर्य है - चाल-ढाल, वेश-भूषा, आलापप्रलाप, आदि के द्वारा पात्रों की प्रत्येक अवस्था का अनुकरण इस ढंग से किया जाये कि नटों में पात्रों की तादात्म्यापत्ति हो जाये । जैसे नट दुष्यन्त को प्रत्येक प्रवृत्ति की ऐसी अनुकृति करे कि सामाजिक उसे दुष्यन्त हो समझें ।
नाटय दृश्य होता है, इसलिए इसे 'रूप' भी कहते हैं और रूपक अलंकार की तरह आरोप होने के कारण रूपक भी कहते हैं। इसके नाटक आदि दस भेद होते हैं ।७२
७०. दशरूपक ११७, ९, १० ७१. दशरूपक १७ ७२. वही, ११७-८
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