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ललित कलाएँ और शिल्प - विज्ञान
१६. मृदंग
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भरत ने इसे पुष्करत्रय
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सोमदेव ने मृदंग का दो बार उल्लेख किया है । में गिनाया है । इसका खोल मिट्टी का बनता है इसीलिए इसका नाम मृदंग पड़ा। इसके दोनों मुँह चमड़े से मढ़े जाते हैं । मृदंग खड़े होकर गले में डालकर तथा बैठकर सामने रखकर हाथों से बजाते हैं । संगीतरत्नाकर में मर्दल का वर्णन करते हुए कहा है कि मर्दल के ही प्रकार विशेष को मृदंग कहते हैं । बंगाल में अभी जिसे खोल कहा जाता है, उसी से मृदंग की पहचान करना चाहिए |
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२०. भेरी
५.
सोमदेव ने भेरी का एक बार उल्लेख किया है । यह मृदंग जाति का वाद्य है जो तीन हाथ लम्बा दो मुँह वाला, धातु का बनता है । मुख का व्यास एक हाथ का होता है । दोनों मुँह चमड़े से मढ़े होकर डोरियों से कसे रहते हैं। और उनमें कांसे के कड़े पड़े रहते हैं । संगीतरत्नाकर में लिखा है कि यह तांबे की बनी तीन बालिस्त लम्बी होती है । यह दाहिनी ओर लकड़ी तथा बायीं ओर हाथ से बजायी जाती है ।
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२१. तूर्य या तूर
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यशस्तिलक में तूर्य के लिए तुर्य मोर तूरी" दो शब्द आये हैं । यशोधर के राज्याभिषेक के समय तूर्य बजाये गये ।
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तूर एक प्रकार का सुषिर वाद्य है । आजकल इसे तुरही कहा जाता है । तुरही के अनेक रूप देखने में आते हैं। दो हाथ से चार हाथ तक की तुरही बनती है । इसका रूप भी कलात्मक होता है ।
५५. पृ० ४८६, पृ० ३८४ उत्त०
५६. नाट्यशास्त्र ६३।१४-१५ ५७. संगीतरत्नाकर ६।१०२७ ५८. पृष्ठ ३८४ उत्त० ५६. संगीतरत्नाकर ६।११४८-५७ ६०. सतूर्यनिनदम् । पृ० १८४ हि० ६१. तूरस्वरः परुषः । - पृ० ६३ हि० शवतूरम् । पृ० वही
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