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________________ ललित कलाएं और शिल्प-विज्ञान २२९ ७. भम्भा यशस्तिलक में भम्भा का दो बार उल्लेख है। एक प्रसंग में सोमदेव ने लिखा है कि जंभाती भुजग-भामिनियों में खलबली मचानेवाली भम्भाएँ बजीं।" श्रुतसागर ने भम्भा का अर्थ वरांग या सुषिर वादित्र विशेष किया है। यशस्तिलक में भम्भा का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है । संगीतरत्नाकर या संगीतराज में इसके उल्लेख नहीं मिलते। प्राचीन साहित्य में भी इसके अत्यल्प उल्लेख हैं । रायपसेणियसुत्त में अवनद्ध वाद्यों के साथ भम्भा का उल्लेख मिलता है। श्रुतसागर ने स्पष्ट शब्दों में इसे सुषिर वाद्य कहा है। वास्तव में सर्पो को जगाने-रिझाने में अभी तक सुषिर वाद्यों का ही प्रयोग देखा जाता है। इसलिए सोमदेव के उल्लेख और श्रुतसागर की व्याख्या से भम्भा को सुषिर वाद्य मानना चाहिए, किन्तु रायपसेणियसुत्त के उल्लेखों के आधार पर विचार करने से ज्ञात होता है कि यह एक अवनद्ध वाद्य ही था। सोमदेव के उल्लेख के विषय में कहा जा सकता है कि सोमदेव ने भम्भा को सपो को जगाने या रिझानेवाला वाद्य नहीं कहा, प्रत्युत उनमें खलबली पैदा करनेवाला कहा है। यद्यपि यह ठोक है कि सौ को रिझाने आदि में अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग नहीं देखा जाता, किन्तु यह तो सम्भव है हो कि उनके द्वारा खलबली पैदा की जा सकती है। इस दृष्टि से सोमदेव के उल्लेख से भी भम्भा को अवनद्ध वाद्य माना जा सकता है, पर उस स्थिति में श्रुतसागर की व्याख्या गलत होगी। ८. ताल ताल का उल्लेख यशस्तिलक में दो बार हुआ है । युद्ध के प्रसंग में लिखा है कि डरे हुए हाथियों ने कान फड़फड़ाये तो तालों की आवाज़ दुगुनी हो गयी। ___घन वाद्यों में ताल का सर्वप्रथम उल्लेख किया जाता है। ताल का जोड़ा होता है। ये छ हअंगुल व्यास के, गोल कांसे के बने हुए बीच में से दो अंगुल गहरे होते हैं । मध्यमें छेद होता है, जिसमें एक डोरी द्वारा वे जुड़े रहते हैं और दोनों हाथों से पकड़कर बजाये जाते हैं। ताल की ध्वनि बहुत देर तक गूंजती है, सोमदेव ने इसीलिए इसका प्रगुणित विशेषण दिया है। ३१. सर्जितासु विजृ भितभुजगभामिनीसंरम्भासु भम्भासु ।-पृ० ५८१ ३२. भम्भासु वरांगासु. सुषिरवादिनविशेषेषु ।-वही, सं० टी० ३३. रायपसेणियसुत्त, पृ० ६२, ६८ ३४. प्रगुणितेषु भयोत्तंभितामरकरिकर्णतालेषु ।-पृ० ५८१ ३५. संगीतराज, ३१३।४।६-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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