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ललित कलाएँ और शिल्प-विज्ञान
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बजाने से हा-हू शब्द होते हैं । १४ उड़ीसा में अभी भी इस वाद्य का प्रचलन है ।
३. दुंदुभि
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यशस्तिलक में दुंदुभि का दो बार उल्लेख है । युद्ध के प्रसंग में लिखा है कि जब दुंदुभि बजने लगे तो उनकी ध्वनि से समुद्र क्षोभित हो उठे । यशोधर के जन्म के समय भी दुंदुभि बनने के उल्लेख हैं ।'
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दुंदुभि अवनद्ध वाद्य है । यह एक मुँहवाला तथा मुँह पर चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है और डंडे से पीट-पीटकर बजाया जाता है । विशेषकर मंगल और विजय के अवसर पर दुंदुभि बजाने का प्राचीन काल से ही प्रचलन रहा है । वेदकाल में भूमि दुंदुभि और दुंदुभि का प्रचुर प्रचार था ।
४. पुष्कर
पुष्कर का यशस्तिलक में दो बार उल्लेख है । युद्ध के समय सुर-सुन्दरियों के कानों को कष्ट देने वाले पुष्कर बजे । श्रुतसागर ने पुष्कर का अर्थ एक स्थान पर मर्दल और दूसरे स्थान पर मृदंग किया है ।
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अवनद्ध वाद्यों के लिए पुष्कर का सामान्य अर्थ में प्रयोग होता है । कभीकभी अवनद्ध वाद्य विशेष के लिए भी प्रयोग किया जाता है । सोमदेव ने सामान्य अर्थ में प्रयोग किया है । नाट्यशास्त्र में मृदंग, पणव और दर्दुर को पुष्करत्रय कहा गया है । संगीतरत्नाकरकार ने भी उसी का सन्दर्भ दिया है । महाभारत में पुष्कर का सामान्य अर्थ में प्रयोग हुआ है कालिदास ने
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१४. ताम्रजा राजती यद्वा कांचनी सुषिरान्तरा । धत्तूर कुसुमाकारवदनेन विराजिता ॥ हस्तमिता दैर्ध्य काइला वाद्यते जनैः । हाहूवर्णवती वीरविरुदोच्चारकारिणी ॥
- संगीतरत्नाकर ६७६४-६५ १५. ध्वनत्सु क्षोभिताम्भोनिधिनाभिषु दुन्दुभिषु । पृ० ५८० १६. दुन्दुभिध्वनिरुत्तस्थे । - पृ० २२८
१७. संगीतरत्नाकर, ६ ११४५-४७
१८. शब्दायमानेषु सुरसुन्दरीश्रवशणारुष्करेषु पुष्करेषु । पृ० ५८१
१६. पुष्करेषु मर्दले । - वही, सं० टी०
पुष्करवत् मृदंगमुखवत् । - पृ० २२६ उत्त० सं० टी०
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२०. नाट्यशास्त्र ३३ २४, २५
२१. प्रोक्तं मृदंगशब्देन मुनिना पुष्करत्रयम् । स० २०६।१०२७ २२. अवादयन् दुंदुभींश्च शतशश्चैव पुष्करान् । -महा० ६ | १३ | १०३
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