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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
होता है । वाद्यों में शंख ही ऐसा है जो पूर्णतया प्रकृति द्वारा निर्मित है और अपने मौलिक रूप में भी वादन योग्य होता है । संगीत - पारिजात में लिखा है कि वाद्योपयोगी शंख का पेट बारह अंगुल का होता है तथा मुखविवर बेर के बराबर । वादन-सुविधा के लिए मुखविवर पर धातु का कलश लगाकर बनाये गये भी शंख उपलब्ध होते हैं । भारतवर्ष में शंख का प्रयोग प्राचीन काल से चला आया है और आज भी मंगल कार्यों के अवसर पर शंख फूकने का रिवाज है ।
साधारणतया शंख से एक ही स्वर निकलता है, किन्तु इससे भी रागरागनियां उत्पन्न की जा सकती हैं। श्री चुन्नीलाल शेष ने अपने एक लेख में लिखा है कि मैसूर राज्य के राज्यगायक स्वर्गीय पण्डित प्रभुदयाल ने कांकरोली नरेश गोस्वामी श्री ब्रजभूषणलाल जी महाराज के सम्मुख इस वाद्य का प्रदर्शन किया था और उससे सब राग-रागनियाँ निकाल कर सुनायी थीं। इस शंख के पेट का परिमाण बारह अंगुल के ही लगभग था । मुखविवर पर मोम से स्वर्ण कलश चिपकाया हुआ था । मुख और स्वर्ण कलश के बीच मकड़ी के जाले की झिल्ली लगी थी ।
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२. काहला
काहला का उल्लेख यशस्तिलक में दो बार हुआ है । एक प्रसंग में सोमदेव ने लिखा है कि जब काहलाएँ बजने लगीं तो उनके नाद को प्रतिध्वनि से दिशाएं, पर्वत तथा गुफाएँ शब्दायमान हो उठीं ।" संस्कृत टीकाकार ने काहला का अर्थ धतूरे के फूल की तरह मुंहवाली भेरी किया है ।'
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संगीतरत्नाकार में भी काहला को धतूरे के फूल की तरह मुँहवाला वाद्य कहा गया है किन्तु यशस्तिलक के टीकाकार का काहला को भेरी कहना उपयुक्त नहीं, क्योंकि भेरी स्पष्ट ही अवनद्ध वाद्य है और काहला सुषिर वाद्य । जातक साहित्य तथा जैन कल्पसूत्र ( पृ० १२० ) में भेरी का उल्लेख अवनद्ध वाद्यों में हुआ है ।
काहला तीन हाथ लम्बा छिद्र युक्त तथा धतूरे के फूल की तरह मुँहवाला सुषिर वाद्य है । यह सोना, चांदी तथा पीतल का बनाया जाता है । इसके
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चुन्नीलाल शेष- अष्टछाप के वाद्य यन्त्र, ब्रजमाधुरी, वर्ष १३, अंक ४ ११. ध्मायमानासु प्रतिशब्दना दितदिगन्तर गिरिगुहा मण्डलासु । पृ० ५८० १२. काहलासु धत्तरपुष्पाकार मुखमेरिपु । - वही, सं० टी० १३. धन्तर कुसुमाकारवदनेन विराजिता । - ६ ७६४
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