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________________ २१८ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन ३३. पाश पाश का उल्लेख भी एक बार हुआ है। लक्ष्मी-प्राप्ति की इच्छा को आशापाश कहा गया है। सोमदेव के वर्णन से लगता है कि पाश का प्रयोग पैरों में रुकावट डाल कर गत्यवरोध के लिए किया जाता था। पाश के सम्बन्ध में डाक्टर पी० सी० चक्रवर्ती ने निम्नप्रकारसे विशेष जानकारी दी है - ऋग्वेद ( ९,८३,४ - १०,७३.११ ) में पाश वरुण तथा सोम का अस्त्र बताया गया है । कर्णपर्व ( ५३,२३ ) में इसे शत्रु के पैरों को बाँधने वाला, अतएव पादबन्ध कहा है। अग्निपुराण ( २५१,२) के अनुसार पाश दस हाथ लम्बा तथा किनारों पर फन्दे युक्त होना चाहिए। इसका सामना हाथ की ओर रहना चाहिए । पाश सन ( जूट ), मूंज, भांग, तांत, चमड़ा अथवा किसी अन्य मजबूत धागे से बनी रस्सी का बनाना चाहिए, इत्यादि । नीतिप्रकाशिका ( ४,४५,६ ) के अनुसार पाश पीतल की बनी छोटी पत्तियों से बनाया जाता था। शुक्रनीति ( ४७ ) के अनुसार पाश तीन हाथ लम्बा डण्डे के आकार का बनाया जाता था, जिसमें तीन नुकीले दांते तथा लोहे की रस्सी ( तार या सांकल ) लगो होती थो । सम्भवतया प्राचीन पाश का विकास इस रूप में हुआ हो । 3 . ३४. वागुरा श्वेत केशों को सोमदेव ने मनरूपी मृग की चेष्टा नष्ट करने के लिए वागुराके समान कहा है। सं० टीकाकार ने वागुरा का अर्थ बंधनपाश किया हैं। 33 वागुरा भी एक प्रकार का पाश हो था। पाश और वागुरा में अन्तर यह था कि पाश द्वारा शत्रु के चलते-फिरते कूट यन्त्र फँसाए जाते थे तथा वागुरा से गज या हाथी पर सवार सैनिकों को खींच लिया जाता था। १३०. लक्ष्मीलवलाभाशापाशस्खलितमतिमृगीप्रचारस्य ।-पृ० ४३३ १३१. चक्रवर्ती - द आर्ट आफ वार इन ऐंशियेंट इंडिया, पृ० १७२ १३२. हृदयहरिणस्येहाध्वंसप्रसाधनवागुराः।-पृ० २५३ १३३. वागुरा बन्धनपाशाः। -सं० टी०, वही १३४. अग्रवाल - हर्षचरित, पृ० ४०, फलक ४, चित्र २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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