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यशस्तिलककालोन सामाजिक जीवन
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१५. परशु या कुठार
परशु का उल्लेख एक बार हुआ है। सोमदेव ने परशु के प्रयोग में कुशल सैनिक को परशुपराक्रम कहा है।" सम्भवतया इस नाम का प्रयोग परशुराम को कथा को स्मृति में रखकर किया गया है ।
सोमदेव परशु और कुठार को एक मानते हैं । गणपति शास्त्री ने लिखा है कि परशु पूरा लोहे का बना चौबीस अंगुल का होता था। परशु और कुठार को यदि एक मान लिया जाये तो वर्तमान में जिसे कुल्हाड़ी कहते हैं उसे हो अथवा उसके समान ही किसी हथियार को परशु कहते थे। अमरावती के चित्रों में भी इसका अंकन हुआ है।
सोमदेव ने कुठार का भी चार बार उल्लेख किया है। संस्कृत टोकाकार ने सभी स्थानों पर उसका पर्याय परशु दिया है । परशु या कुठार का प्रहार गर्दन पर किया जाता था ( कुठारः कण्ठपीठों छिनत्ति, पृ० ५५६ )।
शिल्प में परशु भगवान् शंकर के अस्त्र के रूप में अंकित किया गया है। प्रारम्भिक शिल्प में शूल और परशु का संयुक्त अंकन मिलता है । १६. प्रास
प्रास का उल्लेख तीन बार हुआ है । चण्डमारी के मन्दिर में कुछ लोग प्रास लिये थे । उत्तरापथ की सेना में भी कुछ सैनिक प्रास लिये थे। पांचाल नरेश के दूत के सामने प्रासवीर प्रास को उछालते हुए कहता है कि सूत्कार के शब्द से दिग्गजों को भयभीत करता हुआ मेरा यह प्रास युद्ध में कवच सहित योद्धा को तथा उसके घोड़े को भेदकर दूत की तरह नागलोक में चला जायेगा।
७१. परशुपराक्रमः सावख्यं पाणिना परश्वधं निर्नेनिजानः। -पृ० ५५६ ७२. जयजरठितमूर्तिर्मामकस्तस्य तूर्णम् । रणशिरसि कुठारः कण्ठपीठी छिनत्ति ।-वही ७३. परशुः सर्वलोहमयश्चतुर्विशत्यङगुलः। -अर्थशास्त्र २।१८, सं० टी० ७४. शिवराममूर्ति - अमरावती० फलक १०, चित्र ३ ७५. यश० पृष्ठ ४३३, ४६६, ५५६, ५६७ ७६. बनर्जी – वही, पृ० ३३०, फलक १, चित्र १६, १.६, २१ ७७. यश० पृ० १४५, ४६५ ७८. प्रासप्रसरः ससौष्ठवं प्रासं परिवर्तयन् ,
सूत्कारवित्रासितदिक्करीन्द्रः प्रासो मदीयः समराङ्गणेपु। सककटं त्वां च हयं च भित्वा यास्यत्ययं दूत इवाहिलोके ॥ -पृ० ५६१
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