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यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
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धर्म भी समाप्त हो जाता है, केवल नीच वृत्तियों के साथ पाप ही शाप की तरह चिपटा फिरता है। __ सोमदेव ने लिखा है कि वास्तव में बात यह है कि नौकरी तो एक प्रकार का सौदा है। नोकर अपने सौजन्य, मैत्री और करुणा रूप मणियों को देता है तो मालिक से उसके बदले में धन पाता है। यदि न दे तो उसे धन भी न मिले क्योंकि धन ही धन कमाता है।"
५३. सत्यं दूरे विहरति समं साधुभावेन पुंसां,
धर्मश्चित्तात्सहकरुणया याति देशान्तराणि । पापं शापादिव च तनुते नीचवृत्तेन साध,
सेवावृत्तः परमिह परं पातकं नास्ति किंचित् ॥ वही ५४. सौजन्यमैत्रीकरुणामणीनां व्ययं न चेत् भृत्यजनः करोति ।
फलं महीशादपि नैव तस्य यतोऽर्थमेवार्थनिमित्तमाहुः॥ वही
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