SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन १९७ सुवर्ण के उल्लेख प्राचीन साहित्य और शिल्प में समान रूप से पाये जाते हैं । श्रावस्ती के अनाथपिंडक की कथा प्रसिद्ध है । अनाथपिंडक बौद्ध संघ के लिए एक बिहार बनाना चाहता था। इसके लिए उसने जो जमीन पसन्द की वह जैत नामक एक राजकुमार की सम्पत्ति थी । अनाथपिंडक ने जब जैत से उस जमीनका दाम पूछा तो उसने उत्तर दिया कि आप जितनी जमीन लेना चाहें उतनी जमीन पर मूल्यस्वरूप सुवर्ण बिछाकर ले लें । अनाथपिंडक ने अठारह करोड़ सुवर्ण बिछाकर जमीन को खरीद लिया । भरहुत के बौद्ध स्तूप में इस कथा का अंकन हुआ है। एक परिचारक छकड़े पर से सिक्के उतार रहा है, एक दूसरा उन सिक्कों को किसी चीज में उठाकर ले जा रहा है । दूसरे दो परिचारक उन सिक्कों को जमीन पर बिछा रहे हैं । बोधगया के महाबोधि मन्दिर के स्तम्भों में भी इसी तरह के चित्र हैं । ४४ ४५ ४६ सोमदेव के उल्लेख से ज्ञात होता है कि दशमी शती तक सुवर्ण मुद्रा का प्रचार था । सोमदेव ने लिखा है कि पल का व्यवहार सुवर्णदक्षिणा में था । वस्तु-विनिमय वस्तु-विनिमय में एक वस्तु दे कर लगभग उसी मूल्य की दूसरी वस्तु ली जाती थी । भद्रमित्र सुवर्ण-द्वीप के व्यापार के लिए गया तो वहाँ से अपनी पसन्द की अनेक वस्तुओं को वस्तु-विनिमय में संगृहीत किया । ४७ एक अन्य प्रसंग में आया है कि एक गड़रिया एक बकरा लिये था । यज्ञ करने के इच्छुक एक पण्डित ने पूछा- 'अरे भाई, बेचना हो तो इसे इधर लाओ ।' ' सरकार, बेचना ही तो है । आप अपनी अंगूठो बदले में मुझे दे दें, तो मैं इसे दे दूँ ।' उसने उत्तर दिया । और उस पण्डित ने अँगूठी देकर बकरा ले लिया । ४८ वस्तु-विनिमय की सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि जो वस्तु विक्रेता के पास है उस वस्तु की आवश्यकता उस व्यक्ति को हो जिस व्यक्ति की वस्तु आप लेना चाहते हैं । इसी आवश्यकता की तीव्रता या मन्दता के आधार पर वस्तु-विनिमय का आधार बनता था । ४४. कनियम- स्तूप व भरहुत, पृ० ८४ ४५. कनिंघम - महाबोधि, १० १३ ४६. पलव्यवहारः सुवर्णदक्षिणा । - १० २०२ ४७. अगण्यपयविनिमयेन तत्रत्यमचिन्त्यमात्माभिमतवस्तुस्वन्धमादाय । - पृ०३४५ उत्त० ४८. अरे मनुष्य, समानीयतामित इतोऽयं छागस्तत्र चेदस्ति विक्रेतुमिच्छा इति । पुरुष : भट्ट, विचिक्रीषुरेवैनं यदि भवानिदं मे प्रसादी करोत्यंगुलीयकम् । पृ० १३१ उत्त० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy